Karnataka में CM फ़ेस पर कश्मकश जारी… कांग्रेस की नाकामी या मज़बूती?

अमर उजाला की हेडलाइन है- चार दिन बाद भी कर्नाटक को नहीं मिल सका सीएम. इस वाक्य से ‘कवि’ का क्या आशय है? पहली नज़र में पढ़ कर तो यही लगता है कि जैसे कांग्रेस पार्टी में सीएम चेहरा तय करने की भी कुव्वत नहीं है, राज्य क्या चलाएगी? यह सिर्फ़ अमर उजाला की बात नहीं है. कमोबेश सभी अख़बार और टीवी इसी लाइन पर खेल रहे हैं. यानी हर तरफ़ से कांग्रेस को कमजोर बताने की होड़ है. लेकिन सवाल उठता है कि क्या एक राज्य के लिए अगले पांच सालों तक सभी ज़रूरी निर्णय लेने का अधिकार, यूं ही किसी को सिर्फ शीर्ष नेतृत्व के पसंद या नापसंद के आधार पर दे देना चाहिए? या फिर ज़रूरी है कि उस व्यक्ति का ही चुनाव किया जाए जिसका जनाधार हो, विधायकों के बीच सहमति हो और पार्टी की विचारधारा को भी आगे बेहतर तरीक़े से बढ़ाए. कर्नाटक चुनाव विश्लेषण के दौरान बार-बार आपने टीवी चैनलों पर एंकर्स को यह कहते सुना होगा कि कर्नाटक के परिणाम से यह नहीं समझना चाहिए कि पीएम मोदी की लोकप्रियता में कोई कमी आई है. क्योंकि विधानसभा चुनाव में प्रदेश के मुद्दे और समीकरण ज़्यादा प्रभावी होते हैं. तो क्या उस हिसाब से भी कांग्रेस आलाकमान द्वारा यह मंथन करना स्वस्थ परंपरा नहीं है कि अगले पांच सालों के लिए किसे मुख्यमंत्री बनाया जाए. क्या राहुल गांधी, सोनिया गांधी या कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिलकार्जुन खड़गे को बिना किसी से विचार किए सीधे एक नाम की घोषणा कर देनी चाहिए?

दो नामों पर कांग्रेस के अंदर विचार चल रहा है. बेंगलुरू कांग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार और दिग्गज नेता और पूर्व सीएम सिद्धारमैया. दोनों बेहद मज़बूत और लोकप्रिय नेता हैं. डीके शिवकुमार की उम्र 60 वर्ष है. उन्होंने अपनी राजनीतिक करियर की शुरुआत कॉलेज के दिनों से ही कर दी थी. तब उन्होंने NSUI का दामन थामा था. तब से लेकर अब तक वह हमेशा कांग्रेस के साथ जुड़े रहे हैं. अब तक सात बार विधायक चुने गए हैं. आठवीं बार कनकपुरा विधानसभा सीट से जीत दर्ज की है. इसके अलावा जब भी राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के अंदर बड़ी मुश्किल आई है, शिवकुमार ने बड़ी भूमिका निभाई है. कर्नाटक के अंदर भी पार्टी पर उनकी अच्छी पकड़ है. गांधी परिवार के साथ भी उनके अच्छे संबंध रहे हैं.

2018 में पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद से ही शिवकुमार ने दिन रात पार्टी के लिए मेहनत की है. कांग्रेस के मुश्किल समय में भी अकेले शिवकुमार ही थे जिन्होंने ज़मीनी कार्यकर्ताओं से लेकर सीनियर लीडरशिप तक में आत्मविश्वास का ग़ुब्बारा भरा रखा. कर्नाटक में चुनाव कैंपेन की रूपरेखा तैयार करना हो या फिर आर्थिक मदद.. शिवकुमार ने हर चीज़ के लिए लंबा संघर्ष किया है. शिवकुमार का बुरा पहलू यह है कि उनके ख़िलाफ़ प्रवर्तन निदेशालय यानी कि ED का केस दर्ज है. 2019 में मनी लॉन्ड्रिंग और टैक्स चोरी के आरोप में शिवकुमार को करीब दो महीने दिल्ली की तिहाड़ जेल में भी बिताने पड़े थे. ऐसे में कांग्रेस की मुश्किल यह है कि वह 2024 लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी के हाथों में कोई ऐसा मुद्दा नहीं फेंकना चाहेगी, जिससे कि बैठे-बिठाए पार्टी मुसीबत मोल ले ले. ऐसे में पार्टी शिवकुमार को उप-मुख्यमंत्री का पद देकर बैलेंस बनाने की कोशिश कर सकती है. हालांकि शिवकुमार इस पर मानेंगे, जवाब के लिए इंतज़ार करना होगा.

वहीं दूसरा नाम है सिद्धारमैया का. सूत्रों से मिल रही अब तक की जानकारी बता रही है कि सिद्धारमैया का मुख्यमंत्री बनना लगभग तय है. सिद्धारमैया को मुख्यमंत्री पद का सबसे मजबूत दावेदार माना जा रहा है. वे पहली बार साल 1983 में कर्नाटक विधानसभा में चुनकर आए थे. साल 1994 में जनता दल सरकार में रहते हुए वे पहली बार कर्नाटक के उप-मुख्यमंत्री बने. लेकिन बाद में उन्होंने एचडी देवगौड़ा के साथ विवाद की वजह से जनता दल सेक्युलर का साथ छोड़ दिया और 2008 में कांग्रेस का हाथ थाम लिया. सिद्धारमैया साल 2013 से 2018 के बीच कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे चुके हैं. उन्होंने अब तक 12 चुनाव लड़े और नौ में जीत दर्ज की है. हालांकि वे लिंगायत और हिंदू वोटरों के बीच डीके शिवकुमार से कम लोकप्रिय नेता माने जाते हैं. एक और बात है. सिद्धारमैया पहले ही कह चुके हैं कि यह उनका आख़िरी चुनाव है. सिद्धारमैया पहले भी सीएम रह चुके हैं इस वजह से कांग्रेस नेतृत्व के साथ उनके संबंध बेहतर है. इसलिए आख़िरी चुनाव मानते हुए कांग्रेस सिद्धारमैया को सीएम बनाने की पहल कर सकती है. इसकी एक और वजह भी है.

सिद्धारमैया ने इससे पहले मुख्यमंत्री रहते हुए गरीबों के लिए कई योजनाओं चलाई थीं. जैसे सात किलो चावल देने वाली वालाअन्न भाग्य योजना, स्कूल जाने वाले छात्रों को 150 ग्राम दूध और इंदिरा कैंटीन. इन योजनाओं की वजह से सिद्धारमैया सरकार की काफ़ी तारीफ़ भी हुई थी. यानी कांग्रेस के सामने कर्नाटक में पार्टी के भविष्य को बनाए रखने और लोकसभा चुनाव से पहले अंतर्कलह को दबाए रखने की चुनौती है. संभव है कि अगर राहुल गांधी का क़द पीएम मोदी जैसा होता तो वो इन दोनों नामों से इतर किसी भी तीसरे कमज़ोर नेता को सीएम बनाने की घोषणा करवा सकते थे. लेकिन क्या वह रवैया तानाशाही नहीं होता? क्या पार्टी में सबको अपनी वरिष्ठता, लोकप्रियता और वफ़ादारी की वजह से शीर्ष पद पर बैठने का हक़ नहीं मिलना चाहिए?

Last Updated on May 17, 2023 8:32 am

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