Martyrs day history and significance: महात्मा गांधी की हत्या किसने की, कैसे की, उस रोज़ क्या हुआ था, गोडसे कौन था, किस संगठन से संबंध रखता था? ये तमाम सवालों के जवाब आपने खूब पढ़े होंगे. लेकिन असल में इस कहानी को प्रतीकात्मक स्वरूप देकर महापुरुषों की मूर्तियों की आपस में लड़वाया गया, ताकि सन 1947 में नकार दिए गए विचारधारा को भारत में जगह दिलाई जा सके. लड़ाई गांधी से या नेहरू से नहीं है. लड़ाई इस बात की है कि मुसलमानों के लिए पाकिस्तान मुल्क़ बन सकता है तो फिर हिंदुओं के लिए हिंदुस्तान क्यों नहीं? जैसे घर के दो छोटे बच्चों में इस बात को लेकर लड़ाई रहती है कि उसके पास लाल रंग की कार है तो मेरे पास क्यों नहीं? गांधी एक ऐसा देश चाहते थे, जहां सभी धर्म और जाति के लोगों को बराबर अधिकार और सम्मान मिले. जबकि मोहम्मद जिन्ना धार्मिक आधार पर मुल्क़ चाहते थे.
1906 में जब मुस्लिम लीग की स्थापना हुई थी तो भी उनका उद्देश्य ‘भारतीय मुसलमानों के अधिकारों को सुरक्षित रखना’ बताया गया था. जैसे इन दिनों ‘हिंदू ख़तरे में’ बताए जाते हैं. धार्मिक आधार पर हुए इस बंटवारे की रेखा अपने साथ ग़ुस्सा, बेबसी और क्रूरता का सैलाब लेकर आई थी. हालांकि तब का भारत कभी भी धार्मिक आधार पर बंटवारा नहीं चाहता था. गांधी इसी सोच के प्रतीक थे.
ये भी पढ़ें- व्यंग्य: JDU be like- BJP साधन संपन्न है, पीएम मोदी हैं.. उफ्फ INDIA के उसूल, जिससे दो वक्त की रोटी तक…
गांधी ने पुरातन पंथियों को कठघरे में खड़ा किया था
आज जिस सनातन धर्म को महान बताकर कई लोग अपनी पीठ थपथपाते हैं, तब महात्मा गांधी इसके समर्थक होते हुए भी एक राष्ट्र के तौर पर इसमें सुधार की गुंजाइश देखते थे. यही वजह थी की ”गांधी ने समाज के एक तबक़े को अछूत बनाने के पीछे पुरातन पंथियों को कठघरे में खड़ा किया था.”
कास्ट प्राइड: बैटल्स फ़ॉर इक्वॉलिटी इन हिंदू इंडिया’ के लेखक, मनोज मिट्टा कहते हैं कि 1920 में जब कांग्रेस ने अपने नागपुर अधिवेशन में अस्पृश्यता के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पारित किया था, तो इसमें महात्मा गांधी की बड़ी भूमिका रही थी. छुआछूत के ख़िलाफ़ कांग्रेस का वो ऐतिहासिक प्रस्ताव इन शब्दों के साथ शुरू हुआ था कि, ‘हिंदू समाज की अगुवाई करने वालों से अपील है कि… वो हिंदू धर्म को अछूत प्रथा से निजात दिलाने के लिए विशेष तौर से प्रयास करें.’
उस दौर में जातिगत भेदभाव की भयावह हालात को देखते हुए, प्रस्ताव इन शब्दों के साथ ख़त्म हुआ था कि कांग्रेस, ‘पूरे सम्मान के साथ धार्मिक गुरुओं से अपील करती है कि वो समाज के दबे कुचले वर्गों के साथ होने वाले बर्ताव में सुधार की बढ़ती ख़्वाहिश को पूरा करने में मदद करें.’
यह पूरी बातचीत BBC ने अपनी एक रिपोर्ट में छापी है.
दलितों के लिए गांधी के विचार कब बदले?
मनोज मिट्टा के मुताबिक़ गांधी लंबे समय तक जाति व्यवस्था के मूल यानी वर्ण व्यवस्था में विश्वास करते थे.’मंदिरों में दलितों को प्रवेश करने का अधिकार देने को लेकर गांधी के विचार तब बदले, जब 1932 में उन्होंने पूना का समझौता किया था. इस समझौते के तहत अछूतों ने अलग निर्वाचन व्यवस्था का अधिकार छोड़ दिया था. जबकि ये अधिकार उन्होंने लंबी लड़ाई के बाद हासिल किया था. इसके बाद ही गांधी को लगा कि बदले में उन्हें भी अछूतों के लिए कुछ करना चाहिए.’
ये भी पढ़ें- अयोध्या: रामलला प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में फिल्मी सितारों का जमावड़ा, संयोग या प्रयोग?
पूने समझौते को लेकर डाक्टर भीम राव अंबेडकर समेत दलित वर्ग के कई बड़े नेता नाराज़ थे. लेकिन वो नहीं चाहते थे कि अनशन में महात्मा गांधी की मौत हो जाए और उनके समाज को इसके लिए ज़िम्मेदार माना जाए.
ऐसा भी नहीं था कि इस घटना के बाद गांधी अचानक बदल गए. रूढ़ीवादी विचारों से निकलने में उन्हें समय लगा. लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने अछूतों के लिए आवाज़ उठाई. मनोज मिट्टा कहते हैं कि जब गांधी ने दलितों को मंदिर में प्रवेश का अधिकार देने के विधायी सुधार का समर्थन किया, तो उनकी मदन मोहन मालवीय से तीखी तकरार हुई थी. मदन मोहन मालवीय मंदिर में प्रवेश के मामले में किसी भी तरह की सरकारी दख़लंदाज़ी के ख़िलाफ़ थे.
पाकिस्तान को 55 करोड़ दिलवाने की वजह से गांधी से नाराज़गी
देश आज़ाद हो गया था, लेकिन महात्मा गांधी किसी राजनीतिक विचारधारा से नहीं जुड़े थे. इसलिए उनके लिए सिद्धांत का ज़्यादा महत्व था. 13 जनवरी, 1948 को दोपहर क़रीब 12 बजे महात्मा गांधी भूख हड़ताल पर बैठ गए. उनकी दो मांगें थी. पहली मांग- पाकिस्तान को भारत 55 करोड़ रुपए दे. दूसरी मांग- दिल्ली में मुसलमानों पर होने वाले हमले रुकें. आख़िरकार गांधी के। दबाव में 15 जनवरी को भारत सरकार ने घोषणा की कि वो पाकिस्तान को तत्काल 55 करोड़ रुपए देगी.
ये भी पढ़ें-फ़र्ज़ी ख़बरों के ख़तरे में भारत नंबर वन… रिपोर्ट पर बोले लोग- हम विश्व गुरु हो गए!
भारत सरकार के लिए इस फ़ैसले से उग्रपंथी हिंदू बहुत नाराज़ हो गए. ख़ास तौर पर हिंदू महासभा. महात्मा गांधी के पड़पोते तुषार गांधी के मुताबिक़ “बापू पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए देने की मांग कर रहे थे ताकि सांप्रदायिक सौहार्द क़ायम हो. पाकिस्तान के पैरोकार बनने के लिए नहीं.”
तुषार गांधी के मुताबिक “नेहरू और पटेल 55 करोड़ रुपए देना नहीं चाहते थे. उनके लिए जन-भावना मायने रखती थी. बापू सही क्या है और गलत क्या है इसी आधार पर फ़ैसला करते थे. उनके लिए मानवता सबसे ऊपर थी. वो वादा ख़िलाफ़ी क़तई बर्दाश्त नहीं कर सकते थे. बापू ने वही करने को कहा जिसका वादा भारत ने किया था. नेहरू और पटेल चुनावी राजनीति में आ चुके थे लेकिन बापू आज़ादी के बाद भी अपने सिद्धांतों पर ही चल रहे थे. बापू को न जन-भावना से डर लगता था और न ही मौत से”.
तुषार गांधी आगे कहते हैं, “कैबिनेट का फ़ैसला था कि जब तक दोनों देशों के बीच विभाजन का मसला सुलझ नहीं जाता है तब तक भारत पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए नहीं देगा. हालांकि विभाजन के बाद दोनों देशों में संधि हुई थी कि भारत पाकिस्तान को बिना शर्त के 75 करोड़ रुपए देगा. इनमें से पाकिस्तान को 20 करोड़ रुपए मिल चुके थे और 55 करोड़ बकाया था. पाकिस्तान ने ये पैसे मांगना शुरू कर दिया था और भारत वादाख़िलाफ़ी नहीं कर सकता था. बापू ने कहा कि जो वादा किया है उससे मुकरा नहीं जा सकता. अगर ऐसा होता तो द्विपक्षीय संधि का उल्लंघन होता”. इस बातचीत को भी बीबीसी की एक रिपोर्ट में पढ़ा जा सकता है.
गांधी को मुस्लिम परस्त क्यों कहा गया?
भारत सरकार के इस फ़ैसले के बाद हिंदू महासभा के मंच तले एक बैठक बुलाई गई और पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए देने पर मजबूर करने और हिंदू शरणार्थियों को मुसलमानों के घरों में नहीं रहने देने के फ़ैसले की आलोचना की गई. इस बैठक में महात्मा गांधी के ख़िलाफ़ आपत्तिजनक शब्दों का भी इस्तेमाल किया गया था. उन्हें तानाशाह कहते हुए, उनकी तुलना हिटलर से की गई.
ये भी पढ़ें- मंदिर के नाम पर लहर BJP का एजेंडा, पांच न्याय की योजना हमारे पास: राहुल गांधी
पुलिस की रिपोर्ट में यहां तक कहा गया है कि मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा को लेकर महात्मा गांधी की भूख हड़ताल से सिख क़ौम भी नाराज़ थे. सिखों को भी लग रहा था कि गांधी ने हिंदू और सिखों के लिए कुछ नहीं किया. दूसरी ओर, मुसलमानों ने 19 और 23 जनवरी को दो प्रस्ताव पास करके कहा कि गांधी ने उनकी निःस्वार्थ सेवा की है. इससे महात्मा गांधी की छवि मुस्लिम परस्त नेता के तौर पर बनाई गई. इन दिनों भी सेकुलर नेताओं के लिए इसी भाषा का प्रयोग होता है.
गांधी की हत्या की कोशिश ठीक दस दिन पहले 20 जनवरी को भी की गई थी. लेकिन उस दिन नाथूराम गोडसे की तबीयत ख़राब हो गई. अन्य चार लोग बिड़ला भवन गए और हालात का मुआयना किया. बिड़ला भवन से लौटकर ये चारों 10.30 बजे हिंदू महासभा भवन पहुंचे. वहां पहुंच कर पीछे जंगल में चारों ने अपने रिवॉल्वर की जांच की. बाद में फ़ाइनल प्लान सेट करने के लिए दिल्ली के कनॉट प्लेस के मरीना होटल में इनकी मुलाक़ात हुई.
पुलिस प्रशासन की लापरवाही से गई गांधी की जान
मीटिंग के बाद शाम पौने पांच बजे ये बिड़ला भवन पहुंचे और भवन की दीवार के पीछे से मदन लाल पाहवा ने प्रार्थना सभा में बम फेंका. मदन लाल को मौक़े पर ही गिरफ़्तार कर लिया गया. उनके पास से हैंड ग्रेनेड भी बरामद हुआ. तीन अन्य प्रार्थना सभा में थे और ये भीड़ का फ़ायदा उठाकर भाग गए. तुषार गांधी कहते हैं कि बापू को मारने की असली साज़िश की तारीख़ 20 जनवरी ही थी, लेकिन उस दिन वे नाकाम रहे और दस दिन बाद गांधी जी के जीवन का अंतिम दिन आ गया.
20 जनवरी को बम फेंकने की ख़बर अगले दिन टाइम्स ऑफ इंडिया, द स्टेट्समैन, बॉम्बे क्रॉनिकल जैसे अख़बारों में बैनर शीर्षक के साथ छपी. तब टाइम्स ऑफ इंडिया से एक पुलिस इंस्पेक्टर ने कहा था, “बम शक्तिशाली था और इससे कई लोगों की जान जा सकती थी. हैंड ग्रेनेड महात्मा गांधी को मारने के लिए था”.
वहीं बॉम्बे क्रॉनिकल में रिपोर्ट छपी कि ‘मदन लाल पाहवा ने बम फेंकने का गुनाह क़बूल लिया है और कहा कि वो महात्मा गांधी के शांति अभियान से ख़फ़ा हैं इसलिए हमला किया.’
पाहवा को पूछताछ के लिए संसद मार्ग पुलिस थाना से सिविल लाइंस लाया गया. 24 जनवरी तक पूछताछ चली. अपने बयान में पाहवा ने ‘हिंदू राष्ट्र’ अख़बार के मालिक का नाम लिया लेकिन अग्रणी अख़बार के संपादक का नाम नहीं लिया, जिसके संपादक नाथूराम गोडसे थे, मालिक थे नारायण आप्टे.
27 जनवरी को गोडसे दिल्ली के लिए हुए रवाना
27 जनवरी को गोडसे और आप्टे बॉम्बे से दिल्ली के लिए रवाना हुए. दोनों ट्रेन से पहले ग्वालियर पहुंचे. रात में ये दोनों डॉ दत्तात्रेय परचुरे के घर रुके. अगले दिन उन्होंने ग्वालियर में इटली मेड काले रंग की ऑटोमैटिक बैरेटा माउज़र ख़रीदी. 29 जनवरी की सुबह दोनों दिल्ली आ गए. दोनों रेलवे के ही एक कमरे में रुके. यहीं पर इनकी मुलाक़ात करकरे से हुई.
30 जनवरी को हत्या से पहले पिस्टल शूटिंग की प्रैक्टिस के लिए तीनों बिड़ला भवन के पीछे जंगल में पहुंचे. अभ्यास के बाद ये लोग बिड़ला भवन पहुंचे और शाम पांच बजे बापू को गोली मार दी. नाथूराम को पुलिस ने वहीं गिरफ़्तार कर लिया. लेकिन आप्टे और करकरे एक बार फिर दिल्ली से भागने में कामयाब रहे. आप्टे और करकरे 14 फ़रवरी को जाकर गिरफ़्तार हुए.
जज आत्माचरण ने फ़ैसले के बाद कहा था कि पुलिस ने 1948 में 20 से 30 जनवरी के बीच जमकर लापरवाही की. मदन लाल पाहवा की गिरफ़्तारी के बाद दिल्ली पुलिस के पास गांधीजी की हत्या की साज़िश को लेकर पर्याप्त जानकारी थी.
जज आत्माचरण ने कहा था, “मदनलाल पाहवा ने साज़िश को लेकर बहुत कुछ बता दिया था. रुइया कॉलेज के प्रोफ़ेसर जीसी जैन ने बॉम्बे प्रेसिडेंसी के गृह मंत्री मोरारजी देसाई को साज़िश के बारे में बताया और उन्होंने भी बॉम्बे पुलिस को सारी सूचना दे दी थी. लेकिन पुलिस बुरी तरह से नाकाम रही. अगर पुलिस ठीक से काम करती तो शायद गांधीजी की हत्या न हुई होती”.
पुलिस पर भारी लापरवाही के आरोप के बाद भी किसी पुलिस वाले के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं हुई.
सावरकर की मदद के बिना गांधी की हत्या सफल नहीं होती
लेट्स किल गांधी, पेज-691 में तुषार गांधी ने लिखा है कि महात्मा गांधी की हत्या के मामले में चीफ़ इन्वेस्टिगेशन ऑफ़िसर जमशेद दोराब नागरवाला ने रिटायर होने के बाद कहा था, “मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि बिना सावरकर की मदद और भागीदारी के बिना गांधी की हत्या की साज़िश कभी सफल नहीं होती”. यानी सावरकर को सब कुछ जानते हुए भी बेगुनाह क़रार दिया गया था.
गांधी की हत्या के वक़्त सरदार पटेल देश के गृह मंत्री थे. इसलिए सवाल उन पर भी उठे. मौलाना आज़ाद ने इंडिया विन्स फ़्रीडम के पेज-223 में लिखा, “जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि सरदार पटेल गृह मंत्री के तौर पर गांधी की हत्या में अपनी ज़िम्मेदारी से भाग नहीं सकते हैं”.
बीबीसी के मुताबिक़ सरदार पटेल की बेटी मणिबेन पटेल ने गवाह के तौर पर कपूर कमिशन से अपने बयान में कहा कि उनके पिता को मुस्लिम विरोधी के तौर पर देखा जाता था. उनकी जान को ख़तरा था क्योंकि मारने की धमकी उनके घर तक आई थी. मणिबेन पटेल ने भी स्वीकार किया कि जयप्रकाश नारायण ने सार्वजनिक रूप से उनके पिता को गांधी की हत्या के लिए ज़िम्मेदार ठहराया था.
मणिबेन ने कहा, “जिस बैठक में उनके पिता को जयप्रकाश नारायण ने गांधी की हत्या के लिए ज़िम्मेदार बताया था उसमें मौलाना आज़ाद भी थे लेकिन उन्होंने कोई आपत्ति नहीं जताई. इससे मेरे पिता को बहुत दुख पहुंचा.”
मणिबेन पटेल ने कपूर कमिशन से कहा था, “मेरे पिता पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए देने से बहुत दुखी थे. उन्हें लगता था कि इस रक़म को देने की वजह से ही बापू की हत्या हुई. यहां तक कि नेहरू भी पैसे देने के पक्ष में नहीं थे. इसी दौरान सरदार पटेल ने नेहरू से कहा था कि कैबिनेट से छुट्टी दे दीजिए क्योंकि मौलाना भी मुझे नहीं चाहते हैं”.
कपूर आयोग महात्मा गांधी की हत्या की साजिश की जांच के लिए भारत सरकार द्वारा गठित एक आयोग था.
मणिबेन पटेल ने नेहरू-पटेल के रिश्तों पर क्या कहा?
गांधी की हत्या के बाद नेहरू ने पटेल को एक चिट्ठी लिखी. उस चिट्ठी के बारे में मणिबेन ने बताया कि उसमें नेहरू ने लिखा था, “अतीत को भूलकर हमें साथ मिलकर काम करना चाहिए”. नेहरू की बात सरदार ने भी मान ली लेकिन जयप्रकाश नारायण ने सरदार पर हमला करना जारी रखा. पांच मार्च 1948 को सरदार को हार्ट अटैक आया तो उन्होंने कहा कि अब मर जाना चाहिए और गांधीजी के पास जाना चाहिए. वो अकेले चले गए हैं”.
गांधी की हत्या के एक हफ़्ते बाद यानी छह फ़रवरी, 1948 को संसद का विशेष सत्र बुलाया गया और सरदार पटेल से सांसदों ने कई तीखे सवाल पूछे. ‘तेज़’ अख़बार के संस्थापक सांसद देशबंधु गुप्ता ने सरदार पटेल से संसद में पूछा, “मदन लाल पाहवा ने गिरफ़्तारी के बाद अपना गुनाह भी क़बूल लिया था और आगे की योजना के बारे में भी बताया था. कौन-कौन इसमें शामिल हैं ये भी बताया था. ऐसे में क्या दिल्ली सीआईडी बॉम्बे से इनकी तस्वीरें नहीं जुटा सकती थीं? फ़ोटो मिलने के बाद प्रार्थना सभा में बांट दी जाती और लोग सतर्क रहते. क्या इसमें घोर लापरवाही नहीं हुई है?”
इस सवाल के जवाब में पटेल ने कहा, “दिल्ली पुलिस ने इन्हें पकड़ने की कोशिश की लेकिन सभी अलग-अलग ठिकानों पर थे. इनकी तस्वीरें भी नहीं मिल पाई थीं”. महात्मा गांधी के आजीवन सचिव रहे प्यारेलाल जाँच में गवाह नंबर 54 थे. उन्होंने कहा है कि विभाजन के बाद पटेल के गांधी से मतभेद थे लेकिन गांधी को लेकर उनके मन में इज़्ज़त कम नहीं हुई थी. प्यारेलाल ने कहा था, “पटेल कहते थे कि मुसलमान भारत में रह सकते हैं और उन्हें सुरक्षा भी मिलेगी लेकिन उनकी वफ़ादारी भारत और पाकिस्तान के बीच में बँटी नहीं रह सकती”.
मणिबेन पटेल ने कहा है कि उनके पिता सरदार पटेल बापू की सुरक्षा को लेकर चिंतित थे क्योंकि पहले भी हमले हो चुके थे. मणिबेन ने कहा, “मेरे पिता ने महात्मा गांधी से जाकर कहा था कि प्रार्थना सभा में आने वाले लोगों की जांच की जाएगी उसके बाद ही अंदर आने दिया जाए लेकिन गांधी इसके लिए तैयार नहीं हुए थे”. इन सभी प्रकरणों से एक बात तो साफ़ है कि काम करते हुए नेहरू और पटेल को लेकर जो भी मतभेद हो, लेकिन उस तरह का मतभेद नहीं था जैसा आज की राजनीति में दिखाया जाता है. गांधी का रोल उस पिता की तरह हो गया था जो दोनों पुत्रों को ख़ुशहाल देखना चाहते थे. इसके लिए वे ख़ुद में भी बदलाव के लिए तैयार थे और बतौर भारतीय, सभी लोगों से भी यही अपेक्षा रखते थे.
गोडसे कौन था?
नाथूराम गोडसे, जिसे आज के दौर में कई लोग हीरो बनाने की कोशिश करते हैं. असल में वह पढ़ाई में फ़ेल रहे एक दर्ज़ी थे, जो आगे चलकर फल बेचने का भी काम कर रहे थे. एज़ुकेशन क्वालिफ़िकेशन के नाम पर यही जानकारी मौजूद है कि वे हाई स्कूल से ड्रॉपआउट यानी कि निकाले हुए छात्र थे. डाक कर्मचारी पिता और गृहणी मां के बेटे गोडसे बाद में हिंदू महासभा में शामिल हुए. जहां वे इसके अख़बार के संपादन का काम करने लगे. बीबीसी के मुताबिक़ महात्मा गांधी की हत्या के बाद उन पर चले मुक़दमे के दौरान उन्होंने अदालत में अपना 150 पैराग्राफ का बयान पढ़ा और इसके लिए पांच घंटे से अधिक का वक़्त लिया.
गोडसे ने अदालत में अपना बयान दर्ज़ करवाते हुए कहा कि गांधी को मारने के लिए कोई साजिश नहीं रची गई थी. जानकार मानते हैं कि वो अपने सहयोगियों को बचाने के लिए ऐसा कर रहे थे. उन्होंने इन आरोप से भी इनकार किया कि उन्होंने ये हत्या अपने नेता विनायक दामोदर सावरकर के मार्गदर्शन में किया था, जिन्होंने हिंदुत्व के विचार को जन्म दिया था. गोडसे ने कोर्ट में यह भी कहा कि गांधी को गोली मारने से बहुत पहले ही वे संघ से अलग हो गए थे.
वहीं लेखक धीरेंद्र झा अपनी क़िताब ‘गांधी ऐसेसिन’ में लिखते हैं, “गोडसे संघ के अहम कार्यकर्ता थे.” ट्रायल से पहले रिकॉर्ड किए गए गोडसे के बयान में “हिंदू महासभा के सदस्य बनने के बाद संघ छोड़ने का कोई उल्लेख नहीं किया गया है.” “हालांकि अदालत में दिए उनके बयान में कहा गया है कि वे संघ छोड़ने के बाद ही हिंदू महासभा में शामिल हुए थे, लेकिन उन्होंने ऐसा कब किया, इस पर वो कुछ नहीं बोले.”
संघ के वरिष्ठ नेता राम माधव का कहना है कि, “यह कहना कि गोडसे संघ के सदस्य थे, महज राजनीतिक मंसूबे के लिए झूठ बोलना है.”
संघ के सबसे प्रभावशाली नेताओं में से एक एमएस गोलवालकर ने गांधी की हत्या का वर्णन एक ऐसी त्रासदी के रूप में किया जो कि पहले कभी न देखा गया हो. ऐसा इसलिए भी क्योंकि गांधी को मारने वाला उनके अपने ही देश और धर्म का व्यक्ति था.
हाल के दिनों में एमजी वैद्य जैसे संघ के नेताओं ने गोडसे को एक हत्यारा बताते हुए कहा कि उन्होंने (गोडसे ने) भारत के अति-सम्मानीय व्यक्ति की हत्या करके हिंदुत्व का अपमान किया है. वहीं विक्रम संपत जैसे लेखकों का मानना है कि संघ और हिंदू महासभा के बीच तीखे संबंध थे.
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने हिंदू महासभा के साथ मिलकर पार्टी क्यों नहीं बनाई?
सवाल उठता है कि अगर उस दौर में गांधी के इतने सारे विरोधी थे तो फिर संघ राजनीतिक रूप से सफल क्यों नहीं हुआ? अक्टूबर, 1951 में एमएस गोलवलकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी कोलकाता के कॉर्नवॉलिस स्ट्रीट पर एक घर में मिले. इस मुलाक़ात का मुख्य एजेंडा था- क्यों ना जनवरी 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के साये में और निर्धारित आम चुनावों को देखते हुए एक नई पार्टी की शुरुआत की जाए. मुखर्जी का प्रस्ताव था कि आरएसएस को एक राजनीतिक दल को बढ़ावा देना चाहिए.
गोलवलकर की प्रतिक्रिया थी कि संघ अनिवार्य रूप से एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन है और इसे राजनीति में लाने से इसका आदर्शवादी फोकस भटक जाएगा. लेकिन गोलवलकर मुखर्जी के विचार के प्रति खुले थे.
मुखर्जी एक विद्वान और सज्जन व्यक्ति थे. 33 वर्ष की आयु में, उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया था. संयोग से उनके पिता आशुतोष मुखर्जी वाइस चांसलर भी रह चुके हैं. उन्होंने महसूस किया कि गांधी की मृत्यु पर पूरी पूर्णता से शोक मनाया जाना चाहिए. मुखर्जी ने गांधीजी की हत्या के अगले दिन ही हिंदू महासभा से इस्तीफा दे दिया था. क्योंकि हिंदू महासभा पर गांधी की हत्या का आरोप लगा था.
ऐसे में नए तरीके से राजनीति की शुरुआत करना काफी मुश्किल था. तब उनके पास चुनावी लड़ाई के साथ-साथ विकास कार्यों के लिए पर्याप्त टीम नहीं थी. लोगों से ऐसी पार्टी के लिए वोट देने को कहना जिसके बारे में उन्होंने सुना भी नहीं था, एक कड़ी चुनौती थी. दोनों हिंदू नेताओं के बीच एक समझौता हुआ और तुरंत काम शुरू हो गया. हालांकि श्यामा प्रसाद मुखर्जी के लिए संगठनात्मक दृष्टिकोण से हिंदू महासभा में वापस चले जाना चाहिए था. इसकी स्थापना 1915 में हो गई थी. इनके पास लगभग 35 वर्षों का पुराना अनुभव था और पीछे एक ठोस ब्रांड वैल्यू भी थी.
दूसरी ओर, कांग्रेस एक विशाल पार्टी थी. इसके अलावा, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, राम मनोहर लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी आदि नामक समाजवादी थे. मुखर्जी को कुछ अलग पेश करने की जरूरत थी, लेकिन वो महासभा के बिना करना चाहते थे.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आज़ादी में कोई योगदान नहीं
BBC हिंदी से बात करते हुए हैदराबाद यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर ज्योतिर्मय शर्मा कहते हैं, “भले ही मौजूदा दौर की कोई राजनीतिक पार्टी क्विट इंडिया मूवमेंट का हिस्सा रही हो या न रही हो, उसकी विरासत तो सभी ने गंवा दी है. जहां तक संघ परिवार का सवाल है, आज़ादी की लड़ाई में उनकी कोई बड़ी भूमिका नहीं थी. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 1925 से हमेशा ये माना कि स्वतंत्रता की लड़ाई केवल एक राजनीतिक लड़ाई है. और राजनीति से संघ को अभी हाल में नहीं, बल्कि क़रीब-क़रीब साल 2000 तक राजनीति से चिढ़ रही थी.”
वो आगे कहते हैं, “राजनीति को संघ ने तुच्छ माना है, निम्न माना है. उन्होंने ये माना है कि जब तक समाज का और समाज में रहने वाले लोगों का हिंदू संस्कृति के माध्यम से उद्धार नहीं हो, तब तक आज़ादी केवल राजनीतिक आज़ादी बनकर रह जाएगी. फ़ासले तो सब जगह है. जिसको हम आधिकारिक राष्ट्रवाद कहते हैं, जो 1947 में आकर एक तरह से हमारा राष्ट्रवाद बन गया. उसमें भी बड़े फ़ासले हैं. उस राजनीतिक लड़ाई में दलित कहां हैं, आदिवासी कहां है, महिलाएं कहां हैं?”
प्रोफ़ेसर ज्योतिर्मय शर्मा के मुताबिक़ “इतिहास का सत्य आजकल केवल संघ परिवार के साथ है. ऐसा प्रॉपेगैंडा चल रहा है. गोरी और गजनी से इतिहास शुरू करने वाले पाकिस्तान की कई ऐसी बेवकूफ़ियां हैं जिनकी हम यहां हिंदुस्तान में नक़ल कर रहे हैं. आज का नौजवान क्या चाहता है. हमारा शिक्षा का स्तर गिर रहा है. स्वास्थ्य सेवाओं का स्तर गिर रहा है. मानव विकास के हर पैमाने पर गिरावट हो रही है. इतिहास किसका ज़्यादा सही था, किसका ज़्यादा ग़लत था, उसमें हम पड़े हुए हैं. इससे देश का कुछ होने वाला नहीं है. लोग इन बातों में आ जाते हैं, ये बड़े दुख की बात है. उनका मानना था कि राजनीति से कुछ नहीं हो सकता है.”
वे कहते हैं, “आज से आठ या 10 साल पहले सुदर्शन जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक थे और वाजपेयी की सरकार थी, तब उन्होंने एक भाषण में महाभारत के एक श्लोक के हवाले से कहा था कि राजनीति तो वेश्या की तरह है. एक ही आज़ादी तो बची है आज कल देश में, वो गाली देने की है और बाकी हमारी सिविल लिबर्टीज़ पर चोट हो रही है.जहां तक किसी विचार को अपनाने की बात है, अच्छे विचार अपनाने में दिक़्क़त नहीं है. लेकिन ‘अपना बताना’ जो है, वो ज़मीन हथियाने जैसा है. आपने कहीं जाकर अपना खेमा डंडे के बल पर गाड़ दिया.”
VIDEO- शिक्षा में सरस्वती का योगदान पूछने वाली महिला टीचर हेमलता बैरवा को जान से मारने की धमकी!
कुल मिलाकर देखें तो असंतुष्ट वर्ग कौन था? वही जो हमेशा देश को धर्म के चश्मे से देखता था. जिसके लिए सेक्यूलर होना मतलब मुस्लिम परस्त होना था. पटेल जैसे नेता जिनके नाम पर नेहरू और गांधी के विचारों को तोड़ कर दिखाया जाता है, असल में वे भी अनेक सहमतियों के बावजूद साथ चलने और आपसी एकता को बल देते थे. गांधी भी अनेक असहमतियों के बीच सहमति बनाने की विचारधारा को मानते थे और इसी सिद्धांत पर भारत का निर्माण करना चाहते थे.
Last Updated on January 30, 2024 11:17 am