पांच दिन पहले शहीद कैप्टन अंशुमान सिंह (Capt Anshuman Singh) की पत्नी स्मृति, जब राष्ट्रपति से कीर्ति चक्र ले रही थी तो अंशुमान की वीरता की कहानी और स्मृति का चेहरा देखकर लाखों-करोड़ों लोगों की तरह मैं भी भावुक हो गया. समय से शादी हुई होती, पुराने जमाने की तरह, तो मेरी बेटी की उम्र स्मृति की होती. मैं सोच में पड़ गया कि इस बेटी पर मुसीबतों का पहाड़ इस उमर में टूट पड़ा. आज अंशुमान के मां-बाप का एक इंटरव्यू देखा, जिसमें वो कह रहे थे कि हमारा बेटा भी गया और बहू भी गई.
उन्होंने कहा कि अंशुमान के वीरगति प्राप्त होने के कुछ दिनों बाद से ही स्मृति ने उनसे नाता तोड़ लिया. शहीद होने के बाद जो कुछ भी आर्थिक सहायता मिली वो बहू लेकर अपने घर चली गई. स्मृति का कोई जवाब अभी तक नहीं है.
यह इंटरव्यू देखने के बाद मुझे एक झटके में कई वाक़िया याद आ गया. मुंबई के सीरियल बम धमाके में ऐसा ही एक जोड़ा अलग अलग ट्रेनों में बैठा. पत्नी घर पहुंच गई तो पता चला कि जिस ट्रेन में पति आ रहा था वो बम धमाके का शिकार हो गई. पत्नी बदहवास अकेले पूरी रात मुंबई के अस्पतालों के चक्कर काटती रही.
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फिर एक मोर्चरी में पति के शरीर से अलग हो चुके हाथ में घड़ी देखकर पहचाना कि उसका पति दुनिया में नहीं रहा. दोनों नवविवाहित थे. दिल्ली के पटपडगंज में पति के पैरेन्टस रहते थे. अकेला लड़का था उनका. मैंने वो पूरी घटना रिपोर्ट की. जब सालों बाद मुंबई धमाकों पर अदालत का फ़ैसला आया तो मैंने सहयोगी शिवांग को उनके परिवार पर रिपोर्ट करने के लिए भेजा.
पता चला कि बहू का सास-ससूर से कोई रिश्ता नहीं रहा.बहू सारे पैसे लेकर जा चुकी है. बरसों पहले ऐसा ही एक और वाक़या मैंने बीएसएफ के एक सहायक कमांडेंट का भी लखनऊ से रिपोर्ट किया था. अभी कुछेक महीने पहले मीडिया के हमारे एक जूनियर की मौत हुई तो सबने सहयोग राशि इकट्ठा की. लेकिन चर्चा सबसे ज़्यादा इसी बात को लेकर थी कि जमा की गई राशि किसे दी जाए, पत्नी या मां-बाप को.
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ख़ैर बात अंशुमान सिंह की. बड़ी मुश्किल है ये फ़ैसला करना कि नुक़सान किसका ज़्यादा हुआ. पत्नी के लिए उसका पति मुकम्मल दुनिया है. मां-बाप के लिए संतान उसकी कायनात है. मैं स्मृति के पिता के तौर पर सोचता हूं तो लगता है कि ऐसा क्या बुरा किया जो ऐसा हुआ. जब अंशुमान के पिता के तौर पर सोचता हूं तो लगता है कि बेटे को तो खो दिया पर मुझे क्या मिला?
बड़ा मुश्किल है एक तरफ़ खड़ा होना. फिर मुझे अपने एक रिश्तेदार की घटना याद आती है. उनका बेटा मेरी उम्र का था. एक्सीडेंट में मौत हो गई, इकलौता था. उन्होंने अपनी बहू को कुछ दिन अपने पास रखा और जब कुछ दिन बीते तो बोला कि अब तुम बहू नहीं बेटी हो. बच्चे थे नहीं इसलिए उन्होंने अपनी बहू की शादी की और खुद कन्यादान किया और कहा बहू की तरह नहीं बेटी की तरह आया ज़ाया करो.
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हां, इस मां-बाप को बेटे के मरने पर कोई भारी भरकम आर्थिक मदद नहीं मिली थी. उन्होंने अपने खर्च पर बहू को बेटी की तरह विदा किया. बेटी बहू में अंतर तभी ख़त्म होगा जब सास ससुर को बहू में बेटी नज़र आए और बहू को सास ससुर में मां-बाप और दोनों की सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि एक हो.
अंशुमान कहां एक छोटे शहर का साधारण पृष्ठभूमि का बेटा और स्मृति संपन्न मां-बाप की पढ़ी लिखी बेटी. शादियां दो वयस्कों के बीच होती है तो ऐसी अड़चन आती है. दो परिवारों के बीच रिश्ता होता है और दोनों समान पृष्ठभूमि के हों तो रस्ता निकलता है. मैं स्मृति और उनके सास ससुर दोनों के लिए बहुत सहानुभूति रखता हूं. देश को स्मृति के पति और अंशुमान के माता पिता दोनों पर गर्व है.
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वरिष्ठ पत्रकार Rajeev Ranjan Singh के फेसबुक पेज https://www.facebook.com/rajeevranjan.singh.129 से…
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए Newsmuni.in किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
Last Updated on July 12, 2024 5:13 am