अगर VP Singh प्रधानमंत्री नहीं बने होते तो देश में कभी नहीं उठता अयोध्या-आरक्षण मुद्दा?

वीपी की राजनीति खत्म हो गई लेकिन उनके फैसलों का असर आज भी देश पर बना हुआ है, और हां सियासत में नायक खलनायक नहीं होते महज़ किरदार होते हैं.

V-P-Singh-Ex-PM
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अयोध्या विवाद और आरक्षण आंदोलन के केंद्र रहे पूर्व पीएम वीपी सिंह की बुधवार को पुण्यतिथि थी. वीपी वही ‘कमज़ोर’ प्रधानमंत्री थे जिन्होंने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कीं, जिन्हें इंदिरा जैसी ‘ताकतवर’ नेता तक लागू करने से बचती रही. सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी के लिए आरक्षण वीपी की सरकार ने ही सुनिश्चित किया.

देश की सड़कों पर नाराज़ सवर्ण युवकों का हुजूम था. वो खुद को आग लगा रहे थे. जिस राजपूत समाज के वो नेता थे उसने भी उनमें अब दुश्मन खोज निकाला था. कहा जाता है कि डिप्टी पीएम देवीलाल की सियासी चुनौती ने उन्हें ओबीसी का दामन थामने को मजबूर किया था लेकिन वीपी जानते तो थे ही कि वो कितना बड़ा चैलेंज ले रहे हैं.

पत्रकार कुलदीप नैयर कहते हैं कि वीपी ने उनसे एक बार कहा था कि भले ही अपनी एक टांग गंवा दी हो, लेकिन उन्होंने गोल करके ही दम लिया. एक बार अटल बिहारी वाजपेयी ने कुलदीप नैयर से कहा था कि मंडल ना होता तो कमंडल भी ना होता.

हालांकि आडवाणी अपनी आत्मकथा में ऐसा नहीं मानते, बल्कि वो तो बार बार कहते हैं कि उनके चुनावी घोषणापत्र में राम मंदिर का मुद्दा था, तो ऐसे में जब भाजपा वीपी का साथ दे रही थी तो गठबंधन धर्म का पालन करते हुए उन्हें भी इस मुद्दे पर संवेदनशीलता बरतनी चाहिए थी. बहरहाल, सबने देखा कि वीपी ने कोई मुरव्वत नहीं की.

वैसे आरोप ये भी लगता रहता है कि वीपी ने रथ को शुरू में ही क्यों नहीं रोका. रथ चलते ही देश में दंगे भड़कने लगे थे लेकिन वीपी भाजपा के समर्थन से मिली कुरसी पर चुप्पी लगाए बैठे रहे. आखिरकार वीपी एक राजनेता ही तो थे.

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आडवाणी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि बंबई के एक्सप्रेस टॉवर्स की एक बैठक में वीपी ने सबके सामने कहा था- ‘अरे भाई, मस्जिद है कहां? वह तो अभी मंदिर है. पूजा चल रही है. वह इतना जर्जर है कि एक ही धक्के में नीचे गिर जाएगा. उसे ढहाने की ज़रूरत ही क्या है?’ अरुण शौरी ने भी 1990 में इस बैठक पर एक लेख लिखा था.

ज़ाहिर है, वीपी स्थिति समझ तो रहे ही थे. वीपी ने अयोध्या मसले का हल निकालने के लिए राम जन्मभूमि से जुड़े संतों से 4 महीने का वक्त मांगा था, वो फेल रहे. इसके बाद संघ ने कारसेवा की घोषणा कर दी. आडवाणी ने इसी के बीच में गुंजाइश देखी और प्रमोद महाजन के सुझाव से रथयात्रा का आरंभ हुआ.

डॉ कोनराड एल्स्ट अपनी किताब में बताते हैं कि वीपी सिंह के मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के फैसले से कुछ लोग इतने आक्रोशित थे कि उन्होंने आडवाणी की रथयात्रा तक पर पत्थर फेंके. भाजपा वीपी सरकार को बाहर से समर्थन दे रही थी इसलिए आक्रोशित सवर्णों की नज़र में वो इस फैसले का हिस्सा ही थी.

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वहीं वीपी भी किसी तरह इस विवाद को सुलझाने में जुटे थे. एस गुरुमूर्ति सरकार और मंदिर आंदोलन के नेताओं के बीच वार्ताकार बने थे. वो देशभर में घूम घूम कर धार्मिक गुरुओं से मिल रहे थे. खैर, बाद में किसी भी मसौदे पर सहमति बन पाने से पहले ही लालू सरकार के हाथ आडवाणी गिरफ्तार हो गए, नतीजतन सरकार संकट में आ गई.

प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने अपने कैबिनेट तक में आधी सीटें पिछड़े वर्ग को दे दी थीं. ये वीपी थे जिन्होंने बाबासाहेब अंबेडकर का चित्र संसद के केंद्रीय सभागृह में लगवाया और उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया. उनके पूर्ववर्तियों ने कभी बाबासाहेब को भारत रत्न देने योग्य क्यों नहीं समझा ये तो जाना नहीं जा सकता लेकिन वीपी ने कृतज्ञ देश की ओर से उन्हें भारत रत्न दे दिया.

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वीपी की राजनीति खत्म हो गई लेकिन उनके फैसलों का असर आज भी देश पर बना हुआ है, और हां सियासत में नायक खलनायक नहीं होते महज़ किरदार होते हैं.

एक निजी रेडियो चैनल से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार नितिन ठाकुर के फेसबुक वॉल से. 

Last Updated on November 28, 2024 8:35 pm

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