सरकारी कंपनियां बेचकर, लोगों की जेबें काटकर देश का खजाना भरना ठीक या गलत?

सरकारें धंधा करके मुनाफ़ा कमाने के लिए नहीं होतीं. अपने ही लोगों की जेब काट कर खजाना भरने के लिए तो कतई भी नहीं होतीं. अलबत्ता उसके पास अपनी हर परियोजना को घाटे से बचाने के लिए विद्वानों की सेवा लेने का पूरा हक़ और पैसे होते हैं.

यदि फिर भी वो प्रोजेक्ट घाटे में जाए तो संबंधित बाबुओं समेत उस विभाग के मंत्री तक पर कार्यवाही होनी चाहिए जैसे प्राइवेट सेक्टर में होती है. इन्हीं मंत्रियों के अपने व्यापार धंधे तो घाटे में नहीं जाते और हर साल इनकी दौलत का बढ़ना भी यही दिखाता है, फिर सरकारी उपक्रम चलाते वक्त सारी कुशलता कहां मुंह छुपा लेती है? और ये किसी एक सरकार की बात नहीं है.

होना चाहिए था कि बड़ी निजी कंपनियां बंद होने के कगार पर आएं तो सरकार को स्थिति सुधरने तक उसमें निवेश करके कमान अपने हाथ में ले लेनी चाहिए, हो ये रहा है कि सरकारी उपक्रमों को घाटे में डाल डालकर पूंजीपतियों के हवाले किया जा रहा है.

ऊपर से मज़ेदार बात ये है कि लोगों के ज़हन में बैठाया जाता है कि प्राइवेट हाथों में काम ठीक चलेगा. यही लोग पलटकर नहीं पूछते कि अगर वो सरकारी हाथों में नहीं चला तो इसका ज़िम्मेदार कौन है और उसे सज़ा क्यों नहीं दी जानी चाहिए? हमारे पैसों को गटर में बहानेवालों पर कार्यवाही क्यों ना हो?

रेल बजट जब बंद हुआ तो मैंने बार-बार लिखा कि ये रेल को बेच डालने का अंतिम चरण है, पर लोगों को बार बार आश्वस्त करके प्राइवेट ट्रेन चला ही दी गईं. सब मुंह में दही जमाए बैठे रहे। सारी यूनियनें और राजनीतिक दल भांग खाये पड़े रहे. ऐसे ही पड़े रहो, कुछ दिन और हैं जब रही सही कसर पूरी हो जानी है. आम आदमी के लिए आवागमन का साधन रही रेल उसके लिए महंगा शौक हो जाएगी.

कोरोना के बहाने प्लेटफ़ॉर्म टिकट महंगे कर दिए, खाने-पीने वाली और चादर-तकिये वाली सुविधा इनकी मरज़ी तक बंद रही लेकिन टिकट के दाम में कमी नहीं आई. कोई पूछनेवाला नहीं कि पैसे खर्च करके खाने पर कोरोना नहीं आएगा क्या? क्या सिर्फ तभी आएगा जब रेल अपनी तरफ से खाना देगी? साधारण ट्रेनों को स्पेशल बनाकर खुले आम लूट चलती रही. हर किसी को दिख रहा है मगर हैरत कि कैसा श्मशान सा सन्नाटा है!! आज आलम ये है कि ओने पौने तरीकों और हर तरह की शर्त मानकर एयर इंडिया बेचने को उपलब्धि बताया जा रहा है. लोग मान भी ले रहे हैं.

इन सब लूटपाट के तरीकों को सह भी लें अगर किसी तरह की कोई सुविधा दिखे.. मगर वो है कहां ? बस सरकारी उपक्रम को फेल होने दो, फिर बेच दो और उसके बाद लोगों को कॉरपोरेट की तरह मुनाफ़े की भाषा समझाओ. अगला अगर सवाल करे तो आंखें तरेरकर कहो कि सुविधा नहीं दे रहे क्या? वो चुप हो ही जाएगा क्योंकि यहां अब तक बहस “टैक्स के पैसे को कैसे और कहां खर्चें” के स्तर तक पहुंची ही नहीं.

यूरोप के कितने ही देश आपके जिस बिल पर टैक्स लेते हैं उसमें बाक़ायदा बताते हैं कि आपके द्वारा चुकाए गए कर का कितना फीसद सरकार कहां लगाएगी? यहां का बिल देख लें. सेस, जीएसटी, अलां फलां ठुस्स. सरल सा गणित है. महान लोकतंत्र के जागरुक नागरिक को पता ही नहीं चलता कि जीवन के महत्वपूर्ण घंटे और बेशकीमती पसीना लगाकर जो पैसा उसने कमाया और उसमें माचिस तक पर टैक्स दिया वो कौन सी मद में कहां खर्च होना है. उसे केवल इतना पता है कि “उन्होंने किया है तो ठीक ही किया होगा.”

इस बात पर कहीं बहस ही नहीं कि इतना टैक्स वसूला जा रहा है तो सुविधाएं बढ़ाओ. शिक्षा मुफ्त करो. इलाज मुफ्त करो. ये टोल नाम की कानूनी लूट बंद करो. ना. चुपचाप टैक्स भरके अच्छे नागरिक होने का फ़र्ज़ अदा करो पर जो उसे वसूल रहे हैं उनसे ये उम्मीद मत करो कि टैक्स का ऐसा उपयोग करें कि तुम्हारी सौ रुपए प्रति लीटर पेट्रोल महंगाई वाली ज़िंदगी ज़रा सरल बन जाए.अब तो जाने कौन सी उम्मीदें राष्ट्रद्रोह करार दे दी जाएं? तो चुप पड़े रहो या फिर हिजाब जैसा मसला उठे तो बिना जाने-समझे कलम उठाकर कबीलों की बेगार करो.

वरिष्ठ पत्रकार नितिन ठाकुर की फेसबुक वॉल से….

Last Updated on February 15, 2022 12:27 pm

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