Srilanka Economic Crisis : अब भारत ‘आर्थिक तबाही’ से एक कदम दूर, ऐसा कहना ग़लत या सही?

भारत में ‘आर्थिक तबाही तय’ ‘तबाही से एक कदम दूर’ भारत टाइप थिंकर्स को बुरा लगेगा, लेकिन मेरी बातें उन्हें निराश करेगी और इसलिए यह कहना जरूरी भी है- (पिछले कई हफ्ते से लाइव आकर ही बात करने की सोच रहा था लेकिन नहीं हो पाया. इसलिए लिख देना ही मुनासिब लगा.)

1. भारत की आर्थिक स्थिति बुरी हो सकती है, तबाह नहीं. भारत में कुछ राज्य लोकलुभावनकारी नीतियों या मुफ्त पर जिस तरह से खर्च कर रहे हैं, वह चिंता की बात है. लेकिन कोई भी राज्य इसे लंबे समय तक अफोर्ड नहीं कर सकता है. दिल्ली ने हाल ही में मुफ्त बिजली की योजना को वैकल्पिक करने का फैसला किया है.

मतलब आप चाहें तो मुफ्त के विकल्प को छोड़ सकते हैं और यही इस तरह की योजनाओं की सीमा है क्योंकि केंद्रीय वित्त का बंटवारा वित्त आयोग के पास होता है और वहां आप यह नहीं कह सकते हैं कि हम मुफ्त बिजली दे रहे हैं, इसलिए केंद्रीय वित्त में हमें ज्यादा हिस्सा मिलना चाहिए.

2. भारत की अर्थव्यवस्था राजस्व आय के मामले में अति विविध है, न कि कुछ सीमित स्रोतों पर अति केंद्रित. जैसा कि श्रीलंका के साथ है.

3. तमाम आलोचनाओं को सहते हुए भी सरकार ने टैक्स को कम नहीं किया. निजी तौर पर टैक्सपेयर के लिए यह दुख की तरह है और वह टैक्स में छूट चाहता है, लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया. जबकि श्रीलंका के टैक्स स्लैब में अधिकांश आबादी कर के दायरे से ही बाहर हो गई थी.

अब आप इसे लेकर खुश हो जाएं या दुखी, यह आपका कॉल है. लेकिन भारत में टैक्स की छूट जैसी लोकप्रिय मांग के आगे सरकार ने घुटने नहीं टेके. यह भी याद होगा कि जब कच्चे तेल की कीमत 70-80 डॉलर प्रति बैरल के बीच थी, तब भी सरकार ने इसका सीधा फायदा उपभोक्ताओं को नहीं दिया था. आपको या हमें बुरा लग सकता है, लेकिन यह कुछ ऐसे फैसले होते हैं, जो सरकार के राजस्व के स्रोत को सूखने नहीं देते हैं.

4. लॉकडाउन के जीडीपी के मुकाबले दौरान घरेलू वित्तीय जमा में कमी आई थी लेकिन अब यह स्थिर है. भारत में राजकोषीय घाटे के अनुशासन को लेकर सरकारें गंभीर रही हैं और जरूरत पड़ने पर भी इसमें ढील दी जाती है.

वित्त वर्ष 22 के लिए सरकार ने घाटे के लक्ष्य को पूर्व के 6.8 फीसदी से बढ़ाकर 6.9 फीसदी कर दिया है और इसके पीछे की वजह सार्वजनिक निवेश के जरिए आर्थिक वृद्धि की कमजोर गति को मजबूती देना है लेकिन इसके बावजूद सरकार 2025-26 तक इसे 4.5 फीसदी के नीचे लाने के लिए प्रतिबद्ध है.

अगले बजट में हमें इसकी झलक देखने को मिलेगी. 2008 के मंदी के समय में भी ऐसा किया गया था, जब मनमोहन सिंह ने सार्वजनिक खर्च को बढ़ाया था. लेकिन भारत में राजकोषीय छूट कोई नियम नहीं है. यही अनुशान हमें बचाता रहा है.

एफपीआई की निकासी के आधार पर जो भारत के आर्थिक पतन का अनुमान लगा रहे हैं, उन्हें यह जानना चाहिए कि यह निवेश अपनी प्रकृति में उतार-चढ़ाव वाला ही होता है. ब्याज दरों में इजाफा होगा तो निवेशक शेयर बाजार से पैसा निकाल कर दूसरे बाजार में चल देंगे.

स्थिरता का मानक एफडीआई होता है, जो लंबे समय तक अर्थव्यवस्था में बना रहता है. ऐसे अनगिनत आर्थिक कारण है, जो हमें श्रीलंका नहीं होने देगा. रही बात सामाजिक समरसता में खलल पड़ने और अर्थव्यवस्था पर उसके प्रभाव की, तो वह चिंता का विषय हो सकता है, लेकिन इतना भी नहीं कि हम कहने लगे कि भारत श्रीलंका से बस दो कदम दूर है.

भारत में अभी भी कमाई से कम खर्च करने की प्रवृत्ति विद्यमान है, इसलिए सब प्राइम संकट जैसे हालात भी हमारे यहां नहीं बनते. तबाही और विनाश की बात करने वाले ये ‘बुद्धिजीवी’ ऐसे हैं, जो महंगाई को कम करने के लिए ब्याज दरों में किए गए इजाफे को महंगाई बढ़ने वाला उपाय बता डालते हैं.

वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक पराशर के फ़ेसबुक वॉल से…

Last Updated on January 2, 2024 11:08 am

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