Mirzapur 3 Review: राजनीति और अपराध का गठजोड़ किस तरह राजनीति को भ्रष्ट करने के साथ साथ समाज का सत्यानाश कर रहा है. इंसान का क्रोध, नफरत,हिंसा, लालच, महत्वाकांक्षा, दबदबे की चाहत कैसे उसकी अपनी जिंदगी, घर-परिवार, रिश्ते-नाते, प्यार-मोहब्बत, प्रतिष्ठा सब तबाह कर देता है.
ख़ुशहाल जीवन नर्क बन जाता है, अच्छा भला आदमी असामान्य, मनोरोगी हो जाता है और ताक़त के नशे में पगलाया आदमी आखिरकार कैसे भस्मासुर की नियति को प्राप्त होता है. कुल मिलाकर यही सारे संस्कारी निचोड़ हैं मिर्ज़ापुर वेब सीरीज़ के तीन सीज़न के.
जिसे दर्शकों तक पहुंचाने के लिए निर्माता-निर्देशक-लेखक ने सारे संस्कारों की बलि देकर बेहिसाब वीभत्स हिंसा, गंदी गालियों, अश्लीलता का परनाला बहा दिया है.
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पहले दो सीज़न भी हिंसा और गालीगलौज से भरपूर थे लेकिन इस बार अति की भी अति हो गई है. इस तीसरे सीज़न में मिर्ज़ापुर के बेहद लोकप्रिय किरदार मुन्ना भइया (दिव्येंदु शर्मा) भी नहीं हैं.
दूसरे सीज़न की आखिरी कड़ी में मारे जा चुके मुन्ना भइया का इस बार शुरुआत में ही बाकायदा दाह-संस्कार कर दिया जाता है. मुन्ना भइया के बाहुबली पिताश्री क़ालीन भइया उर्फ़ अखंडानंद त्रिपाठी ( पंकज त्रिपाठी) पिछली बार तीन गोलियां खाकर इस बार कोमा में दिखाये जाते हैं.
फिर आधी सीरीज़ के बाद धीरे-धीरे सक्रिय होते हैं और अंत में धांय-धांय करके बाज़ी पलट देते हैं.
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तीसरा सीज़न जहां खत्म हुआ है, चौथे का रास्ता खोल दिया गया है. चीफ़ मिनिस्टर माधुरी यादव (ईशा तलवार) का भयमुक्त प्रदेश का सपना धरा रह जाता है. क्योंकि गुड्डू पंडित (अली फ़ज़ल) और गजगामिनी उर्फ़ गोलू गुप्ता (श्वेता त्रिपाठी शर्मा) भी बच गये हैं. क़ालीन भइया भी बच गये हैं. मिर्ज़ापुर की गद्दी का सपना पाले बैठी बीना त्रिपाठी( रसिका दुग्गल) भी हैं. यानी पिक्चर अभी बाक़ी है.
दिव्येंदु के न होने से मिर्ज़ापुर का मज़ा चला गया है. अगले सीज़न में अगर लेखकों की मेहरबानी से उनका पुनर्जन्म दिखा दिया जाए तो हैरत नहीं होगी.
कालीन भइया बने पंकज त्रिपाठी के लिए ज्यादा कुछ करने को था नहीं, सिवाय निष्क्रिय रहने के. सिर्फ आखिरी एपिसोड में बाहुबली के रंग में दमदार अंदाज में लौटते हैं पंकज त्रिपाठी.
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पूर्वांचल के माफ़िया गुड्डू पंडित के किरदार में अली फ़ज़ल ने इस बार अपने किरदार के अंतर्द्वंद्वों को, मन के भीतर चल रहे तूफ़ान को बहुत अच्छी तरह अभिव्यक्त किया है.
एक भले औसत मध्यवर्गीय परिवार का लड़का कैसे हिंसा के ग्लैमर में शहर का नामी गुंडा बन जाता है और फिर कैसे माफ़िया बनने के बाद उसकी महत्वाकांक्षा उसे लगातार भटकाती जाती है और वह उस अंधी गली से बाहर निकल नहीं पाता, यह सब पहले दूसरे सीज़न में भी दिखाया जा चुका है.
तीसरे सीज़न में अली फ़ज़ल ने अपने किरदार के अकेलेपन, उसके जीवन की निरुद्देश्यता, उपेक्षा, ताक़त के झूठे अहसास, खोखलेपन को भी ज्यादातर भावशून्य चेहरे के साथ सूक्ष्म अभिव्यक्तियों के जरिये अच्छी तरह उभारा है.
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उनके वकील पिता की भूमिका में राजेश तैलंग का काम शानदार है. आदर्शवाद और व्यावहारिकता के बीच फंसे एक औसत मध्यवर्गीय इंसान की कश्मकश को उन्होंने बहुत बढिया तरीके से दिखाया है.
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सीरीज़ को बेवजह बहुत खींचा गया है दस कड़ियों में. स्क्रिप्ट में कसावट नहीं है. विजय वर्मा जैसा शानदार अभिनेता का कहानी में सही तरीके से इस्तेमाल ही नहीं हुआ है.
वरिष्ठ पत्रकार Amitaabh Srivastava के फेसबुक पेज से…
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए Newsmuni.in किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
Last Updated on July 6, 2024 3:49 pm