Remembering Tom Alter: ‘मम्मी ये अंग्रेज़ कौन है??’
‘पता नहीं मुझे.’
बस.. मैं यही सवाल करता और जवाब भी मुझे यही मिलता. किसी भी फिल्म में जिसका प्लॉट ब्रिटिश हिंदुस्तान होता टॉम अल्टर (Tom Alter) उसमें ज़रूर दिखाई देते थे. वो अंग्रेज़ अधिकारी बनते थे.
बाद में तो उन्हें देखने की ऐसी आदत पड़ी कि जब भी दूरदर्शन पर कोई आज़ादी से जुड़ी फिल्म आती तो मुझे टॉम (Tom Alter) के परदे पर आने का इंतज़ार होता. उनका चेहरा याद रहने लगा था. हालांकि किरदार कभी पसंद नहीं आया. बालमन कहता कि ये ज़रूर कोई अंग्रेज़ है जो आज भी हिंदुस्तानी फिल्मों में पैसे के लिए काम करने आता है.
ना तब गूगल था और ना आसपास कोई फिल्मी जानकार. माता-पिता-दोस्त या कभी कोई बड़ा भाई हमारे ज्ञान का अहम स्रोत होते थे. बहुत कुछ अपने दिल पर भी था. मन ही में कुछ भी मान लिया करते थे और संतुष्ट हो जाते थे. बाद के दिनों में मालूम पड़ा कि बचपन में जो अंग्रेज़ टीवी पर दिखाई देता था वो मेरी तरह इसी देश में पैदा हुआ है.
फिर पता चला कि उनके पिताजी भी यहीं की पैदाइश हैं. आगे चलकर दिमाग के पट खुले और जानकारी मिली की जनाब अंग्रेज़ नहीं अमेरिकी हैं. इसके बाद टॉम साहब (Tom Alter) के असल ज़िंदगी के अनगिनत किरदारों के बारे में वक्त वक्त पर परिचय मिला. कभी फिल्मी सितारा, कभी थिएटर का नायक, कभी स्पोर्ट्स जर्नलिस्ट तो कभी ज़मीन से जुड़ा एक शानदार इंसान.
टॉम मेरे बचपन की यादों से जुड़े थे इसलिए उन्हें रूबरू देखने की इच्छा हमेशा से ही थी. जब मुंबई में था तो मालूम हुआ कि दिल्ली में रहनेवाला विभव अपने ग्रुप के साथ ‘लाल किले का आखिरी मुशायरा’ नाम के नाटक का मंचन करने आ रहा है. सालों बाद विभव से मिलने का मौका था. मालूम पड़ा कि बहादुरशाह ज़फर का किरदार टॉम अल्टर निभाते हैं.
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मेरे लिए बड़ी बात थी. अपने छोटे भाई जैसे विभव को टॉम अल्टर जैसी शख्सियत के साथ एक्टिंग करते देखना. मुंबई की भागमभाग में वो प्ले देखा और विभव से भी मिला. कई तस्वीरें लीं. टॉम साहब से मुलाकात नहीं हो सकी. तब विभव ने ही दिलासा दिया कि किसी ना किसी दिन उनके साथ बैठकी होगी.
टॉम अल्टर के बारे में हमेशा कोई ना कोई जानकारी मिलती ही रही. दिल्ली में उनका प्ले ‘के एल सहगल’ देखने गया. वो तब बहुत बीमार थे. मंच संचालक ने ही बताया कि गंभीर बीमार टॉम साहब ने कहा था मैं बीमार हूं लेकिन आखिरी वक्त तक आने की कोशिश करूंगा. वो खुद भी जानते थे कि लोगों ने टिकट उन्हें देखने के लिए खरीदे हैं. टॉम साहब ने उस शाम किसी को निराश नहीं किया.
वो आए और मंच पर कोने में पड़ी उस कुरसी पर बैठकर कई घंटों तक संवाद बोलते रहे जो उनके लिए नियत थी. नाटक के बीच एक वक्त आता है जब दो मिनट के लिए अंधेरा छाता है और सामान की अदला बदली इसी अंधेरे में होती है. टॉम साहब शायद स्टेज से कुछ देर के लिए चले गए. फिर से मंच रौशन हुआ तो कुरसी सामने थी लेकिन टॉम साहब नहीं.
एकाध मिनट तक तो सब इंतज़ार करते रहे लेकिन स्थिति अजीब सी बनते देख ग्रुप के संचालक आलम साहब ने दर्शकों के पीछे से माइक पर टॉम साहब के संवाद बोलने शुरू कर दिए. अचानक टॉम साहब धीमे धीमे आते दिखे और बड़े बेलौस अंदाज़ में हाथ उठाकर आलम साहब से बोले- ”बस, अब मैं सब संभाल लूंगा.”
लोग उनके इस अंदाज़ पर खूब हंसे. वो शायद मौका देख टॉयलेट चले गए थे मगर आते-आते थोड़ा लेट हो गए. मैंने ध्यान दिया कि उनका एक हाथ पट्टी में लिपटा था. सोचा कि शायद कहीं से कोई कट लगा होगा. ठीक हो जाएगा. तब तक उन्होंने किसी को बताया नहीं था कि वो स्किन कैंसर से जूझ रहे हैं.
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फिर बाद के दिनों में विभव से मिलना और हर बार टॉम साहब से मिलने की इच्छा ज़ाहिर करना चलता रहा. जब कम ही लोगों को मालूम था तब उसने ही मुझे एक दिन बताया कि टॉम अल्टर को स्किन कैंसर है. मैं डर गया. मुझे मौत के उसी दुख ने घेर लिया जो मुझे ये अहसास देता है कि हर अच्छा इंसान जा रहा है. मैंने उससे बस इतना ही कहा कि जब दिल्ली में हों और कुछ ठीक हों तो बताना मैं उनसे मिलना चाहता हूं.
टॉम ख़ालिस हिंदुस्तानी थे. इतने हिंदु्स्तानी थे कि 1947 में हुए बंटवारे को भी झेला. उनके दादा जी पाकिस्तान में ही रह गए थे, जबकि पिता ने हिंदुस्तान चुना था. वो पैदा भी उसके बाद यहीं हुए. ना जाने इस देश के कितने ही शहरों और कस्बों में अलग अलग पेशों के साथ रहे. बावजूद इसके ‘गोरा साहब’ की छवि से आखिरी वक्त तक पीछा छुड़ा नहीं पाए.
वो बात अलग है और अच्छी भी कि सूचना क्रांति ने बहुत से लोगों तक ये तथ्य पहुंचा दिया कि वो किसी भी भारतीय से कम भारतीय नहीं थे. 2008 में ना सिर्फ खुद पद्मश्री हुए बल्कि सगी बहन मार्था को भी समाजसेवा के लिए पद्मश्री मिला. उनका बेटा नोएडा में हमारी ही तरह पत्रकार है.
टॉम अल्टर साहब के साथ जो सबसे शानदार बात रही वो ये थी कि उन्होंने फिल्मों और थिएटरों में बराबर काम किया. आज़ादी से जुड़ी फिल्मों में अहम किरदार निभाए. उन्होंने एक प्रोग्राम में कहा भी था कि वो देश की आज़ादी को कभी माउंटबेटन बनकर देखते रहे, कभी गांधी फिल्म में डॉक्टर की नज़र से, शतरंज के खिलाड़ी में वो अंग्रेज़ अधिकारी थे तो क्रांति में एक खराब अंग्रेज़.
”भारत एक खोज” के कितने एपिसोड्स में वो थे अब मुझे याद नहीं आता. उधम सिंह पर बनी फिल्म में वो जनरल डायर बने थे. सावरकर पर बनी फिल्म के लिए तो टॉम साहब बाकायदा अंडमान गए और उसी जेल में फिल्म बनाई. इसके अलावा मौलाना अबुल कलाम पर एक नाटक में वो अकेले ही मंच पर आज़ादी की कहानी गुनते हैं.
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टॉम अल्टर ”हिंदुस्तानी” ज़ुबान के मुरीद रहे. इसी में ज़्यादा काम किया. एक नाटक ‘ग़ालिब’ में वो ग़ालिब भी बनते थे. वैसे खुद भी शायर थे. कहते थे कि मुझे दिलीप कुमार ने ही बताया था कि अच्छी एक्टिंग का राज़ शेरो शायरी है. वैसे टॉम अल्टर ने ही सचिन तेंदुल्कर का पहला टीवी इंटरव्यू लिया था. आज तो वो यूट्यूब पर आम है. देखना मत भूलिएगा. एक मज़ेदार किस्सा उनका पुराना इंटरव्यू देखते हुए सुनने में आया. वो सुना कर पोस्ट खत्म कर रहा हूं.
‘सरदार’ फिल्म में गांधी की मौत का सीक्वेंस शूट हो रहा था. उसमें टॉम साहब ने माउंटबेटन का किरदार निभाया था. वो खुद बताते हैं कि दिल्ली में जब वो शूटिंग कर रहे थे तो लगातार कोई अंग्रेज़ उन्हें ही नोटिस कर रहा था. दो घंटे के बाद वो अंग्रेज़ उनकी तरफ बढ़ा और अपना परिचय कराते हुए बोला कि वो उनका (टॉम साहब) नाती है.
चौंकते हुए टॉम साहब ने बात समझने की कोशिश की तो उस अंग्रेज़ ने साफ किया कि दरअसल वो लॉर्ड माउंटबेटन का नाती है. टॉम साहब इतने शानदार ढंग से माउंटबेटन का किरदार निभा रहे थे कि असल माउंटबेटन के नाती ने उनकी तारीफ करते हुए कहा था कि बहुत से लोगों ने मेरे नाना का किरदार निभाया है, लेकिन आप सबसे करीब हैं.
सचमुच टॉम साहब ने अपने सभी किरदार पूरी शिद्दत से निभाए और 67 साल की उम्र में अलविदा कह दिया. मुझे अहसास हो रहा है कि हमने एक और बुज़ुर्ग को खो दिया जिसने हिंदुस्तान नाम का घर बसते देखा था.
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(टॉम साहब का निधन 29 सितंबर 2017 को हुआ था. तस्वीर में दाईं तरफ पीछे लाल कपड़े पहने विभव विराजमान है)
एक निजी रेडियो चैनल से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार नितिन ठाकुर के फेसबुक वॉल से.
Last Updated on October 1, 2024 12:12 pm