शाहरुख खान शक्ल सूरत, अभिनय और पर्सनैलिटी – तीनों के लिहाज़ से बहुत औसत हैं. बावजूद इसके वो भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े स्टार हैं. यह सच है.
‘डर’ और ‘बाज़ीगर’ जैसी फिल्मों के बाद शाहरुख का कैरियर बॉलीवुड में चल निकला लेकिन असल मायने में वो स्थापित हुए उदारीकरण के सपनों को सुनहरे पर्दे पर चरितार्थ करने वाली फिल्म ‘दिलवाली दुल्हनिया ले जाएंगे’ से.
उदारीकरण लागू होने के चार साल बाद 1995 में रिलीज़ हुई ‘दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे’ के बाद स्वीट-स्वीट राज हर लड़की का सपना हो गया था.
मीठा बोलने वाला, लचर, रीढ़ विहीन नायक जो दरअसल उदारीकरण के बाद पैदा होने वाले समाज की, सिनेमाई पर्दे पर पूर्व पीठिका रच रहा था, मियाऊं-मियाऊं करते हर फिल्म में हर किसी के आगे पीछे घूमता है. बस अंत में अपने प्यार के लिए पिटाई खाता है और फिर सबका दिल जीतते हुए सिमरन को जीतकर घर लौट जाता है.
सिमरन का अक्खड़ बाप भी आखिरकार राज की मुहब्बत के आगे घुटने टेक देता है. टेकता भी कैसे नहीं? राज के साथ उसका बाप जो था. यह बाप अपने बेटे को लड़की पटाने का गुर सिखाता है.
नहीं भूलना चाहिए यह वो दौर था जब बाज़ार खुल रहा था, रिश्ते बदल रहे थे. सब कुछ लचक रहा था. बाज़ार से लेकर चरित्र तक. जो बाप असल ज़िंदगी से लेकर सिनेमा तक अनुशासन का प्रतीक था, वह अब दोस्त बन चुका था. अनुशासन दिखाने या दिखाने के बजाय बेटे के साथ इश्क-परिचर्चा करता है.
ऐक्टिंग की जरूरत ही नहीं थी. यूरोप की शानदार लोकेशन, संगीत और बेहत प्रिय गानों की वजह से फिल्म सुपर हिट रही. मुझे भी पसंद आई थी. इस फिल्म के बाद हर जवान होता या जवान हो चुका लड़का राज बनने के सपने देखने लगा.
ऐसे ही मेरी जान पहचान के एक लड़के ने राज बनने की कोशिश की. तब वो 12 कक्षा में था. कोशिश का अंत सिमरन की तत्काल शादी और राज की भयंकर धुनाई के रूप में सामने आया था.
इसके बाद आई ‘मोहब्बतें’ ने तो शाहरुख खान को रोमांस का राजा का राजा बनाकर आसमान पर टिका दिया.
न कहानी, न अभिनय लेकिन फिल्म हिट रही. मुझे याद है कि उस साल इलाहाबाद में वॉयलिन और वॉयलिन सिखाने वालों की मांग बढ़ गई थी. कटरा के आसपास रहने वाले कई अप्रवासी और अंत:वासी दोनों शाम को चौक के बाज़ार में टहलते हुए पाए जाते थे.
वॉयलिन की कीमत पूछने के बाद उनमें से कईयों को नाज़रेथ हॉस्पिटल के बगल में पांडे जी की लिट्टी-चोखे की दुकान पर ही सुकून मिलता.
10 रुपये का लिट्टी चोखा खाते हुए, पीडी हॉस्टल में रहने वाली प्रेमिका को साहित्यिक भाषा में महान और ऐतिहासिक प्रेम पत्र लिखने की योजना बनाते. अगली सुबह राजू टी स्टॉल पर, जो इंटलैक्चुल टाइप थे, एक दिन बासी ‘द हिंदू’ अखबार रटते हुए कलक्टर बनने का सपना देखते.
बहरहाल, बात शाहरुख खान की कर रहा था. इसके बाद शाहरुख की कई फिल्में आईं जो अच्छा चलीं लेकिन मुझे ‘स्वदेश’ और ‘चक दे इंडिया’ के अलावा अव्वल दर्जे की वाहियात फिल्में लगीं.
‘रब ने बना दी जोड़ी’ देखने के बाद कई दिन तक सदमे मे रहा. यकीन ही नहीं हो रहा था कि दुनिया में ऐसा भी हो सकता है. कौन सी ऐसी पत्नी होगी जिसका पति उसका दिल जीतने के लिए सूरत बदलकर डांस सीखने जाता है फिर ऑफिस से घर लौटकर आता है लेकिन उसकी पत्नी उसे पहचान नहीं पाती?
सालों के बाद रामाधीर सिंह ने मेरी भावनाओं को ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में व्यक्त किया. रामाधीर सिंह का अमर वाक्य है – जब तक सनीमा है लोग चूतिया बनते रहेंगे.
‘डॉन टू’ के दौरान शाहरुख और प्रियंका के साथ डिनर का मौका मिला. दो टेबल को जोड़कर चार लोग साथ बैठे. शाहरुख के कहने पर करीम से या शायद अल जवाहर से रुमाली रोटी और चिकन के कई आइटम मंगाए गए थे. इधर, शाहरुख गरमागरम चिकन खा रहे थे, उधर जनता भयंकर ठंड में वीडियोकॉन टॉवर के नीचे आधी रात उनका इंतज़ार कर रही थी. मुझे समझ नहीं आया कि ये पागलपन क्यूं है.
इसके बाद शाहरुख की फिल्म देखने की हिम्मत नहीं हुई. ‘पठान’ को खिसकाकर देखा लेकिन अंतत: हिम्मत जवाब दे गई. देख रहा हूं कि जनता ‘जवान’ की तारीफ कर रही है. लेकिन चाहे कोई कितना भी कहे मैं रिस्क नहीं ले सकता अब.
सुना है कि कुछ पॉलिटिकल स्टेटमेंट दिया है शाहरुख ने. उनका मोनोलॉग सोशल मीडिया पर चल रहा है. हालांकि मैं देख नहीं पाया. हिम्मत नहीं हो रही. चाहता हूं कि शाहरुख के बारे में मेरे कुछ भरम बने रहें.
वरिष्ठ पत्रकार विश्व दीपक के ट्विटर पेज से…
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए Newsmuni.in किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
Last Updated on September 9, 2023 11:05 am