बदलते मौसम के साथ प्रजातियां पलायन करती हैं. डिस्कवरी और नेट जिओ देखने में बिताए अनगिनत घंटों से इतना तो सीखा ही है. चुनावी मौसम में नेता-कार्यकर्ताओं की अवसरवादी, बेठिकाना, ठुकराई हुई प्रजातियां भी नया ठिकाना खोजती हैं. सालों पत्रकारिता के पेशे में रहकर इतना तो पता ही है. लेकिन राजनीति के जंगल में मार्क्सवादियों को पेड़ की तरह दृढ़ माना जाता रहा है. इसलिए आज अपनी टाइमलाइन पर जब हिमाचल में इस जमात के लोगों के झाड़ू वापी टोपी ग्रहण करने वाली तस्वीरों की झड़ी लग गई, तो हैरानी हुई.
इनमें से सब ऐसे नहीं हैं जिन्हें आम आदमी पार्टी ने कमाया हो, बहुत से ऐसे भी हैं जिन्हें सीपीएम ने गंवाया है, ये पार्टी के नेताओं के सोचने की बात है, खैर..
लेकिन मेरी समझ के हिसाब से दल-बदलुओं की इस श्रेणी को दो प्रजातियों में बांट सकते हैं-
क) ऐसे लोग जो पार्टी की दीक्षा के कारण हैं तो सेक्युलर- सोशलिस्ट, लेकिन उन्हें नेतागीरी वाली हनक भी चाहिए . उनके लिए अब तक प्रदेश में कांग्रेस ही इकलौता विकल्प था, लेकिन पहली बात तो उसे अब राजनीतिक पंडित डूबता जहाज मान रहे हैं लिहाज़ा कांग्रेस के सहारे किसी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को पूरी करने की लॉन्ग टर्म प्लानिंग नहीं की जा सकती. दूसरा वामपंथ से निकलकर अब तक जितने लोग कांग्रेस में गए हैं, उनका हश्र सही नहीं रहा. सोच का सम्मान कह लीजिए या लोक-लाज का डर, बीजेपी इनके लिए कभी विकल्प नहीं रहा. लेकिन अब आम आदमी पार्टी में जाकर वो सोच रहे हैं कि विचारधारा का पर्दा भी रह जाएगा और क्योंकि हांडी अभी नई-नई चढ़ी है, खाने वाले हिस्सेदार भी कम हैं, इसलिए सत्ता का लेग-पीस उनके हाथ लगने का मौका भी ज़्यादा है.
ख) दूसरी श्रेणी में वो आते हैं जो वामपंथ में भी थे तो सिर्फ इसलिए कि राजनीति का चस्का था. यूनिवर्सिटी के गेट से लेकर गेस्ट हाउस तक जब 50 लोग नमस्ते करते थे, तो उनका दिल बाग-बाग होता था. ये वो लोग हैं जो मौका लगने पर कहीं भी जा सकते हैं. उनका मार्क्सवादी पार्टियों में होना पार्टी की ही भूल और कमज़ोरी थी. उनके जाने का मलाल पार्टी को होना भी नहीं चाहिए.
लेकिन पहली कैटेगरी के नए-नवेले आपियों से मेरे चंद सवाल ज़रूर हैं-
– क्या वो बता सकते हैं कि उनकी राय में वो लेफ्ट छोड़कर गए किस ओर हैं? सेंटर या राइट, लेफ्ट ऑफ द सेंटर या राइट ऑफ द सेंटर? अगर वो ये बताने की स्थिति में होंगे तो ज़ाहिर है वो ये भी बता सकते होंगे कि आम आदमी पार्टी की मूल विचारधारा क्या है? समाजवाद? सेक्युलरिज़्म? अगर हां, तो संजीव अरोड़ा पर वो क्या कहेंगे? इस बात का क्या जवाब देंगे कि एक वक्त था जब कपिल मिश्रा को भी पार्टी ने सिर-आंखों पर बिठा रखा था?
– ज़िंदगी भर आप सारे लोगों में बघारते रहे कि आपकी पार्टी व्यक्ति नहीं, विचार के पीछे चलती है. तो क्या आप ये मानते हैं कि आम आदमी पार्टी की धुरी सिर्फ केजरीवाल की शख़्सियत नहीं है? अब जब एक आदमी को पार्टी का खुदा मानना होगा तो अखरेगा नहीं?
– राजनीतिक पंडित मानते हैं कि साल 2014 में मोदी की दिल्ली फतह की ज़मीन केजरीवाल और अन्ना हज़ारे के आंदोलन से ही प्रशस्त हुई थी. अब ये सोच-समझकर बनाई योजना थी या परोक्ष रूप से ऐसा हुआ, ये नहीं कहा जा सकता. लेकिन सियासी जानकारों की ये भी राय है कि आम आदमी पार्टी अगर हिमाचल चुनाव में भी वोट काटेगी तो विपक्ष के ही काटेगी. यानी मदद बीजेपी को हासिल होगी. कल तक लाल रंग की कसमें खाने वालों को अपने धुर सियासी विरोधियों की जीत की सीढ़ी बनकर कैसा महसूस होगा?
– आज की तारीख में केजरीवाल का मोदी ब्रांड को लेकर क्या रुख है? वो उनके साथ तो नहीं, लेकिन खिलाफ़ भी क्यों नहीं दिखते?
– मेधा पाटेकर, योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण जैसे लोग आखिर पार्टी में क्यों टिक नहीं पाए?
– दिल्ली दंगों को रोकने के लिए आम आदमी पार्टी यानी अरविंद केजरीवाल कितना सड़कों पर उतरे थे?
– अब आम आदमी पार्टी के लिए लोकपाल का मुद्दा कहां है? अन्ना हज़ारे कहां हैं?
फेहरिस्त लंबी है, जवाब आपको जनता को देना है, जिसके लिए आपकी जवाबदेही है. लेकिन उससे भी पहले जवाब आपको खुद को देना है, क्योंकि ज़मीर से ज़्यादा बड़ी जवाबदेही किसी और के लिए नहीं होती.
वरिष्ठ पत्रकार दीपक शर्मा की फेसबुक वॉल से….
Last Updated on March 26, 2022 4:07 pm