जब भी चुनाव आता है तो विधवा विलाप शुरू हो जाता है कि पिछली सरकारों ने देश का बेड़ा गर्क कर दिया. यह विलाप बिल्कुल वैसा ही होता है, जैसा आप किसी इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकान में जाएं तो आपसे पूछा जाएगा, अमुख प्रोडक्ट को पहले कहां खुलवाया? अगर आपने किसी प्रतिस्पर्द्धा वाले दुकान का नाम ले लिया तो फिर आपको कई गोलियां खिलाई जाती हैं, जैसे कि वहां नहीं जाना था. लोगों को लूटता है वह. बेवजह सामान बदल दिया. असल में तो यह सामान खराब है. और अंत में आपको एक बार फिर से काटा जाएगा. बाजार में एक इंसान की कीमत बकरे की तरह होती है. जिसे देखकर दुकानदार लार टपकाते हैं. सेवा की मनोभावना कितनी होती है वह तो दुकानदार भाई ही बताएंगे. खैर उन्हें अपने घर चलाने की मजबूरी होती है और वह 100 या 1000 रुपये तक का चूना लगाते हैं. यही वजह है कि लोगों को उनसे ज्यादा शिकायत नहीं होती है. लेकिन जिस तरह से शिक्षा और मेडिकल को व्यवसाय का जरिया बना दिया गया है, क्या वह भारत जैसे देश के लिए विनाश के रास्ते पर आगे बढ़ने जैसा नहीं है?
नालंदा विश्वविद्यालय की दुनिया में थी ख्याति
कोई तो वजह रही होगी कि भारत पूरे विश्व में अपनी गुणवत्तायुक्त शिक्षा के लिए जाना जाता था. पांचवी सदी में गुप्तकाल के दौरान नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी. ख्याति इतनी बढ़ी की दूसरे देश से छात्र पढ़ने यहां आने लगे. चीनी यात्री ह्वेनसांग भी छठी सदी में कुछ सालों के लिए यहां आए थे. बाद में भारत को जानने के लिए इनकी किताब पढ़ी जाने लगी. जिससे भारत का गौरवपूर्ण इतिहास भी पता चलता है. आज़ादी के बाद भी भारत सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती लोगों को बेहतर शिक्षा देना ही था. क्योंकि कृषि आधारित भारत की अर्थव्यवस्था को सुधारने और गरीबी हटाने के लिए सरकार के पास यही एकमात्र विकल्प था. खैर शुरुआत से आते हैं.
नेहरू ने राम मंदिर छोड़ आधुनिक मंदिर बनाया
देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने शिक्षा से लेकर उद्योग जगत को बेहतर बनाने के लिए कई काम किए. उन्होंने आईआईटी, आईआईएम और विश्वविद्यालयों की स्थापना की. साथ ही उद्योग धंधों की भी शुरूआत की. उन्होंने भाखड़ा नांगल बांध, रिहंद बांध और बोकारो इस्पात कारख़ाना की स्थापना की थी. वह इन उद्योगों को देश के आधुनिक मंदिर मानते थे. यहीं तो वो गलती कर गए. काश की उन्होंने देश में सिर्फ मंदिर बनवाया होता. फिर लोगों के सामने आज रोजगार आदि की समस्या ही नहीं होती. कुछ लोग मंदिर में पुजारी होते, बाकी के लोग आसपास दुकान खोलकर पकौड़े तल रहे होते. आज हमारे NRI अंकल अमेरिका और इंगलैड जैसे देशों में बड़े बड़े मंदिरों के पुजारी होते. कमला हैरिस वहां की उपराष्ट्रपति नहीं, सबसे बड़े मंदिर की साध्वी होतीं और प्रज्ञा ठाकुर टाइप वह भी संसद में घुस ही जातीं, भगवा वस्त्र पहनकर. सोचिए हम कितनी तेजी से विश्वगुरु बनने की राह पर अग्रसर हो चुके थे. लेकिन नेहरू की बेवकूफी ने हमसे वह सुनहरा अवसर छीन लिया.
‘पप्पू’ कहकर खारिज करने की नहीं थी प्रथा
एक बार अटल जी ने पंडित नेहरू से कहा था कि उनके अंदर चर्चिल भी है और चैंबरलिन भी है. उसी दिन शाम को दोनों की मुलाकात हुई, नेहरू ने अटल की तारीफ की और कहा कि आप का भाषण बड़ा जबरदस्त रहा. सोचिए उस समय भी अगर विरोधियों को ‘पप्पू’ कहकर टालने की प्रथा होती. तो आज हमारा देश एक बड़ा रत्न खो देता.
नेहरू चाहते थे कि भारत किसी भी देश के दबाव में न आए और विश्व में अपनी स्वतंत्र पहचान स्थापित करे. नेहरु की विदेश नीति का महत्वपूर्ण हिस्सा था पंचशील का सिद्धांत. इसमें राष्ट्रीय संप्रभुता बनाए रखने और दूसरे राष्ट्र के मामलों में दखल न देने जैसे पांच महत्वपूर्ण शांति-सिद्धांत शामिल थे. जवाहर लाल नेहरू ने गुटनिरपेक्षता को बढ़ावा दिया. मतलब यह है कि भारत किसी भी गुट की नीतियों का समर्थन नहीं करेगा और अपनी स्वतंत्र विदेश नीति बरकरार रखेगा. लेकिन मुझे लगता है इससे देश का नाम रोशन तो नहीं ही हुआ होगा.
पंचवर्षीय ‘चुनाव योजना’ नहीं बनती थी
नेहरू ने पंचवर्षीय योजनाएं बनाईं. पहली पंचवर्षीय योजना कृषि क्षेत्र को ध्यान में रखकर बनाई गई तो दूसरी में औद्योगिक क्षेत्रों पर ध्यान दिया गया. मुझे पूरा भरोसा है इससे भी देश का भला नहीं ही हुआ होगा.
बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए देश में एम्स की नींव डाली गई थी. भारत की पहली महिला स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर ने इसकी नींव रखी थी. लेकिन मुझे भरोसा है कि लोगों के मन में इस संस्थान के प्रति प्यार और सम्मान “वोकल फॉर लोकल” नारे के बाद ही पैदा हुई होगी. साल 1956 में दोनों सदनों में इस एक्ट के पास होने के बाद राजकुमारी अमृत कौर ने कहा, ‘मैं यह कहना चाहूंगी कि ये बहुत ही आश्चर्यजनक होने वाला है, ये एक ऐसी घटना होगी जिस पर भारत को हमेशा गर्व रहेगा और मैं चाहती हूं कि भारत इस पर गर्व करे.’शायद उन्हें भी अहसास था कि 2014 के बाद इस देश को असली ‘धरतीपुत्र’ मिलेगा और देश के गौरव को बढ़ाएगा.
एक देश एक विधान नहीं हुआ था लॉन्च
बाद में 1986 में जवाहर नवोदय विद्यालय की स्थापना की गई. इसका उद्देश्य गांव के बच्चों को मजबूत करना था. यही वजह रही कि नवोदय विद्यालयों में 75 प्रतिशत ग्रामीण और 25 प्रतिशत शहरी बच्चों को प्रवेश दिया जाता है. राजीव गांधी ने ग्रामीण क्षेत्र के प्रतिभाशाली बच्चों के लिए नवोदय विद्यालय का जो मॉडल तैयार करवाया, उसके तहत छठवीं से बारहवीं तक की फ़्री पढ़ाई प्रावधान था, जिसमें खाना, रहना और कपड़ा तक शामिल था. उन्होंने सभी छात्रों को अन्य राज्यों की भाषा सीखने पर भी जोर दिया. तीन भाषाओं में अंग्रेज़ी और हिंदी के अलावा तीसरी भाषा के तौर पर किसी दूसरे राज्य की भाषा पढ़ने का प्रावधान था.
नवोदय में नौंवी कक्षा में एक राज्य से दूसरे राज्य में माइग्रेशन का भी प्रावधान किया, ताकि एक राज्य के बच्चों को दूसरे राज्य की भाषा और संस्कृति के बारे में जानकारी प्राप्त हो. तब देश को एक विधान से चलाने की परंपरा नहीं थी शायद. अन्यथा आज हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा हो गई होती. आज जिस तकनीक के बलबूते ट्विटर और फेसबुक पर आईटी सेल चल रहा है वह भी राजीव गांधी की ही देन थी. काश कि उन्होंने देश को कंप्यूटर नहीं दिया होता तो आज लोगों के हाथ में धर्मग्रंथ होते. धर्मप्रचारक होते, आईटीसेल वाले नहीं होते. कांग्रेस की समग्र बुराइयों को गिनाना इतना आसान नहीं है, उसपर कई किताबें लिखी गईं है और आगे भी लिखी जाएंगी.
विश्वगुरु बनने की राह पर तेजी से बढ़ा भारत
वहीं अगर बीजेपी सरकार की बात की जाए, खासकर 2014 के बाद से (यहीं से हम विश्वगुरु बनने की राह पर आगे बढ़े हैं.) तो देश अखबारों की हेडलाइन में काफी तरक्की कर चुका है. 100 रुपये प्रति लीटर से अधिक दाम पर पेट्रोल-डीजल बेचकर भारत काफी तेजी से 5 ट्रिलियन इकोनॉमी वाला देश बनने की राह पर अग्रसर है.
अख़बार और टीवी पर करोड़ों रोज़गार
प्रत्येक साल अखबारों और टीवी पर करोड़ों युवाओं को रोजगार मिलने की खबर इतनी सुर्खियां बन चुकी हैं कि पटना-प्रयागराज जैसे छात्रों के आंदोलन बेहद छोटे लगने लगे हैं. एक साल तक दिल्ली बॉर्डर पर ‘आतंकी किसानों’ पर जमकर बरसने वाली सरकार छात्रों को लेकर इतनी नरम कभी नहीं रही. तुरंत जांच बिठा दी गई. इतना ही नहीं छात्रों द्वारा हिंसा की खबर को भी बड़प्पन दिखाते हुए सरकार और मीडिया ने नजरअंदाज किया. जिनपर केस दर्ज हुआ उनका नाम था- MY name is Khan… यानी कि खान सर…
सही भी है. छात्रों से ट्यूशन के नाम पर इतना पैसा कमाते हैं रोजगार क्यों नहीं देते? देश तो सभी का है, क्या वह छात्रों को पकौड़ा बेचने के लिए कोचिंग सेंटर के बाहर जगह नहीं मुहैया करा सकते थे? नेताओं के पास डोर टू डोर कैंपेन करने का, रैलियों को संबोधित करने का कितना भारी काम होता है. “लोकतंत्र की मां” कहे जाने वाले भारत के लिए चुनाव जैसे बड़े उत्सव का आयोजन कराना आसान काम है क्या?
‘लोकतंत्र की मां’ को स्थापित करने में व्यस्त पीएम
प्रधानमंत्री विश्व में भारत का नाम स्थापित करने के अलावा देश में लोकतंत्र को मजबूत बनाए रखने के लिए प्रत्येक साल चुनावी सभाओं में व्यस्त हैं. अब छात्रों के रोजगार जैसी छोटी मोटी समस्याओं के लिए भी दर्द वही लें. क्यों भाई?
अपना अवकाश छोड़कर भी वह ‘मन की बात’ कहना नहीं भूलते. ऐसे व्यस्त प्रधानमंत्री की व्यस्तता पर सवाल करना श्रीराम के कर्तव्यनिष्ठा पर सवाल करने जैसा है. भले ही उन्होंने एम्स, आईआईटी या आईआईएम जैसे संस्थान नहीं दिए हों लेकिन क्या उनके बिना राम मंदिर का निर्माण संभव था. हालांकि पीएम मोदी ने इस बात को लेकर कभी घमंड नहीं किया. अब सब लोग गृहमंत्री अमित शाह तो नहीं है कि लोगों के दरवाजे दरवाजे जाकर ऐसा कहते फिरें.
J&K में रोज़गार की बारिश में दम तोड़ रहे लोग
जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35 ए हटने के बाद वहां पर रोजगार की बारिश हो गई है. कई बिहारी खोमचे वाले हालही में वहां से वापस लौट आए, क्योंकि वहां रोजगार की इतनी बारिश होने लगी कि दिनदहाड़े लोग इसके बोझ तले दबकर दम तोड़ने लगे. देश में शिक्षा गुणवत्ता इतनी बढ़ गई है कि एक बार मां-बाप अपने बच्चों को खर्च कर पढ़ा दें. फिर देख लें, कैसे उनका बेटा ना केवल अपना, अपने परिवार का बल्कि पूरे देश का भार अपने कंधों पर उठा लेता है. और महंगाई जैसे अभिशाप को भी देश के विकास के लिए खुशी खुशी झेलने में सक्षम बन जाता है.
यूपी की सड़कों पर कूद-फांद मचा रहा विकास
यूपी में इतनी सड़के बन गई हैं कि दोनों किनारों पर अब पैर रखने की जगह नहीं है. हर तरफ रोजगार कूद रहा है. कई बार वह रोड पर बाधक भी बन जाता है. लोग इतने व्यस्त हैं कि उन्हें लोकतंत्र के महापर्व चुनाव में हिस्सा लेने का भी समय नहीं मिल रहा है. लेकिन देशभक्त सरकार लोगों को देशप्रेम का हवाला देते हुए सरकारी खर्चे पर चुनावी रैलियों में लाती है ताकी उनके लहू से देशभक्ति न कम हो पाए. अब रोजगार दे दिया, तरक्की दे दी तो देश को भूल जाएंगे क्या? सौगंध मुझे इस मिट्टी की…
नेहरू की वजह से चीन के सामने रहना पड़ता है चुप
आज विश्व में भारत का इतना खौफ है कि पाकिस्तान का नाम लेने से हर कोई कतराता है. कोई भी उसकी तरफ देखना नहीं चाहता है. यहां तक कि अपने देश में भी उसका नाम लेने की कोई हिम्मत नहीं कर सकता. चीन आंख तो दिखा रहा है लेकिन नेहरू सरकार की गलतियों की वजह से देश सबकुछ बर्दाश्त कर रहा है. अन्यथा बादलों में छिपकर पाकिस्तानी रडार को छकाने वाला और सर्जिकल स्ट्राइक से पाकिस्तान की कमर तोड़ने वाली भारत सरकार क्या ऐसा होने देती?
देश के अंदर भी सेना का राज
पहले की सरकार में सिर्फ सीमा पर सेना होती थी. आज देश के अंदर भगवा गमछा ओढ़कर दूसरी सेना तैयार है. वेलेंटाइन डे जैसे मौके पर या शुक्रवार को यह सेना अभ्यास पर निकलती है. इतना ही नहीं वह अभ्यास के दौरान भूल गए लोगों को श्रीराम की महानाता की भी याद दिलाते हैं. जब तक श्रद्धा से उनके मुंह से जयश्रीराम ना निकल जाए, यह सेना पीछे नहीं हटती.
यानी बाकी लोग रोजगार में व्यस्त हैं और जो थोड़े बहुत लोग बच गए हैं वह देश की रक्षा के लिए दूसरे घेरे के सिपाही बनने की तैयारी कर रहे हैं.
पहले दूरदर्शी योजनाएं बनती थीं अब दूरबीन
पहले की सरकारें दूरदर्शी होकर भी कपड़ों से लोगों को नहीं पहचान पाती थीं. लेकिन अब की सरकारें, अपनी अक्ल के दूरबीन से हजारों किसानों के बीच से भी आतंकी और खालिस्तानी की पहचान कर लेती हैं. अब हमारी सरकार सिर्फ नेहरू की नीतियों की वजह से झुकती है. बाकी को तो हमने पूरी तरह कंट्रोल कर लिया है.
घर के बाहर दूध छोड़ जाती हैं गायें
अब बच्चों को दूध के लिए नहीं तरसना पड़ता है. गायें रात रात भर खेतों में चारा खाती हैं और दिन में उनके घरों के बाहर लोटा लोटा दूध छोड़ जाती है. आदमी और जानवर सभी सामंजस्य बिठाना सीख गए हैं. ‘तुम मुझे चारा दो मैं तुम्हें दूध दूंगी’ एग्रीमेंट के तहत किसानों ने भी अपना दिल बड़ा कर लिया है. वह रात रात भर जाग-जागकर देखते हैं कि गायें ठीक से खा रही हैं कि नहीं?
सरकारें काम करती रही, विपक्ष परेशान
यानी युवा छात्र, भगवाधारी सेना और देश के किसान सभी व्यस्त हैं. विपक्ष के लोग बेवजह हंगामा खड़ा करते रहते हैं. देश तो छोड़ दीजिए विदेशों में भी हमारा ही डंका बज रहा है. कोरोनाकाल जैसे महामारी के दौड़ में भी हमने ताली और थाली का अचूक वाण दिया.. दूसरे देशों के पास हमें देने के लिए था ही क्या? आयुर्वेद का ज्ञान हो या मेडिकल संस्थान भारत का मुकाबला अब कोई देश नहीं कर सकता. यही वजह है कि चीन की गुस्ताखियों को भी हमलोग नजरअंदाज कर दे रहे हैं. वह कहते हैं ना- हाथी चले बाजार और कुत्ता भौंके हज़ार…
Last Updated on January 30, 2022 7:30 pm
ये व्यंगात्मक लेख बता रहा है कि सच में भारत विश्व गुरु बन गया है
व्यंग्यात्मक लेख पढ़कर अच्छा लगा…