Pahalgam Terror Attack: जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में जब गोलियों की गूंज सुनाई दी, तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि ये आवाज़ें 26 ज़िंदगियों को हमेशा के लिए ख़ामोश कर देंगी. इस हमले ने न सिर्फ़ देश को झकझोरा, बल्कि उस ‘सुरक्षा के भरोसे’ पर भी सवाल खड़े कर दिए, जो सरकारें हर हादसे के बाद दोहराती हैं.
सूरत की शीतल कलाठिया के लिए यह कोई टीवी ब्रेकिंग न्यूज़ नहीं थी—ये उनके जीवन की सबसे भयानक त्रासदी थी. उनके पति शैलेशभाई कलाठिया भी इस हमले में मारे गए. जब केंद्रीय मंत्री सी.आर. पाटिल उनसे मिलने पहुँचे, तो शीतल अपने दर्द को रोक नहीं पाईं. उन्होंने पूछा, “आपके पास वीआईपी कारें हैं, लेकिन टैक्स देने वाले आम इंसान की सुरक्षा कहां थी?”
इसी हमले से बच निकले महाराष्ट्र के पारस जैन ने The Hindu को बताया कि हमला 25-30 मिनट तक चला. न पुलिस दिखी, न सेना. रिपोर्ट बताती है—CRPF का कैंप 7 किमी दूर था, और RR का 5 किमी.
तो सवाल उठता है—आख़िर बैसरन जैसे पर्यटन स्थल पर सुरक्षा क्यों नहीं थी?
कश्मीर मामलों की जानकार अनुराधा भसीन BBC से बातचीत में कहती हैं कि उन्होंने 90 के दशक से हर सार्वजनिक जगह पर सुरक्षा देखी है. वो पूछती हैं, “अगर सुरक्षाबल देर से पहुंचे, तो हमलावरों के नाम इतनी जल्दी कैसे सार्वजनिक कर दिए गए?”
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JNU के प्रोफेसर अमिताभ मट्टू मानते हैं कि यह एक बड़ी सुरक्षा चूक थी. उनका कहना है कि पिछले कुछ वर्षों में पर्यटक स्थलों पर ‘दिखाई न देने वाली सुरक्षा नीति’ अपनाई गई थी—जो अब नाकाफी साबित हुई.
पूर्व DGP एस.पी. वैद और रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल सतीश दुआ मानते हैं कि सीमित संसाधनों के बीच दूरस्थ इलाकों में सुरक्षा तैनात करना मुश्किल होता है. लेकिन इस बार हमले का तरीका अलग था—आतंकी आम नागरिकों, ख़ासतौर पर हिंदू पर्यटकों को निशाना बना रहे थे.
दुआ कहते हैं, “यह हमला इज़राइल के नोवा म्यूज़िक फेस्टिवल की तरह है. उद्देश्य है—डर फैलाना, देश के दूसरे हिस्सों में भावनाओं को भड़काना.”
क्या यह एक ‘खुफिया चूक’ थी?
मट्टू और दुआ दोनों मानते हैं—हां. पाकिस्तान का हाथ होने का संदेह ज़ाहिर किया गया है. सेना और ISI की मिलीभगत, लश्कर जैसे संगठनों की भूमिका, और पाकिस्तान आर्मी चीफ़ की भड़काऊ बयानबाज़ी को इसके संकेत के तौर पर देखा जा रहा है.
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अब जब प्रधानमंत्री के नेतृत्व में CCS बैठक हो चुकी है, और भारत ने पाकिस्तान के ख़िलाफ़ कूटनीतिक कदम भी उठाए हैं—सवाल यही है कि क्या ये काफ़ी हैं? क्योंकि जब शीतल जैसी महिलाओं की चीख़ें कैमरे पर दर्ज होती हैं—तो सिर्फ़ आंसू नहीं बहते, सवाल उठते हैं. क्या सरकारें इन सवालों से मुंह मोड़ सकती हैं?
Last Updated on April 29, 2025 1:41 pm