BJP-AAP की UP-Punjab में प्रचंड जीत… भविष्य की राजनीति के लिए क्या है सबक?

उत्तर प्रदेश में BJP की प्रचंड जीत और पंजाब में AAP की… भविष्य की राजनीति के लिए सबक भी है और भूत की राजनीति का समापन भी. हालांकि BJP को 2017 यूपी चुनाव के मुकाबले कम सीटें मिली हैं. पिछली बार बीजेपी की अकेले 312 सीटें थी तो इस बार बीजेपी गठबंधन की कुल जीती हुई सीटें 273 हैं. अबकी बार बीजेपी को अकेले 255 सीटें मिली हैं. हालांकि बीजेपी का वोट प्रतिशत पिछली बार की तुलना में बढ़ा है. इस बार बीजेपी का वोट प्रतिशत 41 प्रतिशत से अधिक रहा है. जबकि 2017 के यूपी चुनाव में यह 39.67% था.

फिर भी इसे प्रचंड जीत इसलिए कहना चाहिए, क्योंकि बीजेपी के लिए इस बार एंटी इनकंबेंसी थी यानी कि सत्ता विरोधी लहर. इसके बावजूद 255 सीट अकेले लाना प्रचंड जीत ही है. जबकि सरकार बनाने के लिए महज 202 सीटें ही चाहिए थी.

SP  का वोट प्रतिशत बढ़ा

वहीं समाजवादी पार्टी की बात करें तो 2022 के यूपी चुनाव में उनका वोट प्रतिशत और सीटें दोनों बढ़ी हैं. अबकी बार समाजवादी पार्टी को अकेले 111 सीटें मिली हैं, जबकि सपा गठबंधन को 125 सीटें मिली हैं. वोट प्रतिशत की बात करें तो 2017 में SP का हिस्सा लगभग 22% था. जबकि 2022 के चुनाव में यह प्रतिशत बढ़कर 32.03 हो गया है. यानी परिवारवादी या गैरपरिवारवादी दोनों विचारधाराओं के मत अब और भी पक्के हुए हैं. लेकिन क्या यह दोनों दलों के लिए आखिरी पीक है और आने वाले समय में लोगों का इन दोनों विचारधाराओं से भी मन ऊबने वाला है?

पंजाब में AAP ने रचा इतिहास

इस पर विस्तृत चर्चा से पहले पंजाब के आंकड़ों को देख लेते हैं. आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के बाद अब पंजाब में इतिहास रचा है. 117 विधानसभा सीटों वाले पंजाब में AAP को 92 सीटें मिली हैं. जबकि पिछली बार पंजाब में AAP को केवल 20 सीटें मिली थी. यानी कि इस बार पिछले चुनाव के मुकाबले 72 ज्यादा सीटें मिली हैं. जबकि प्रदेश में सरकार बनाने के लिए महज 59 सीटें ही चाहिए.

पंजाब में आम आदमी पार्टी को 42.06% मत प्रतिशत प्राप्त हुए हैं. वहीं दिल्ली चुनाव 2020 में AAP ने करीब 54 प्रतिशत मत हासिल किए थे, जबकि बीजेपी को 38.51 फीसदी वोट मिले थे. वहीं पंजाब में बीजेपी को 6.59% वोट मिले हैं. जबकि सत्ताधीन कांग्रेस पार्टी को लगभग 23 प्रतिशत वोट ही मिला है.

पंजाब में बढ़ेगा बीजेपी का वोट प्रतिशत

ये आंकड़े बताते हैं कि पंजाब में आने वाले समय में बीजेपी का वोट प्रतिशत बढ़ने वाला है. जबकि कांग्रेस का और कम होने वाला है. आम आदमी पार्टी के वोट प्रतिशत उनके कामकाज पर निर्भर करेगा.

राजनीतिक जानकार बाकी चार राज्यों में बीजेपी की प्रचंड जीत के पीछे मोदी का करिश्मा देखते हैं. लेकिन क्या यह सिर्फ इतनी सी बात है या इससे इतर भी सोचने की जरूरत है?

पीएम मोदी के बाद BJP का कौन बनेगा चेहरा

कई जानकार मानते हैं कि मोदी जैसे ही पीएम पद से रिटायर होंगे, बीजेपी की लहर या देश में मताधिकारों पर पार्टी का असर कम हो जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं है. क्या पंडित नेहरू के जाने के बाद कांग्रेस का दबदबा खत्म हो गया था? निश्चय ही नहीं… हां नरेंद्र मोदी के बाद के नेताओं पर एक जिम्मेदारी जरूर होगी कि वह भी विपक्ष को लंबे समय तक ‘पप्पू’ बनाए रखें…

बीजेपी के लिए सबसे अच्छी बात यह है कि उनकी पार्टी से जुड़ने वाले लोग किसी जाति विशेष या समुदाय के नाम पर जुड़ने से ज्यादा देश, देश प्रेम, राष्ट्र प्रथम और वंदे मातरम के नाम पर जुड़ते हैं. हालांकि देखने वाले लोगों को लगता है कि यह हिंदुओं की वजह से हैं. ठीक वैसे ही जैसे मुस्लिमों को लगने लगा था कि कांग्रेस उनकी पार्टी है, हिंदुओं को भी यह अहसास कराया गया है कि बीजेपी उनकी पार्टी है. इससे धार्मिक लोग सीधे सीधे बीजेपी में अपना प्रतिनिधित्व देखने लगते हैं. असल में कोई भी व्यक्ति, देशभक्त तो होता ही है. बाकी हनी ट्रैप में तो सेना के जवान भी फंस जाते हैं.

हिंदू से ज्यादा मुसलमानों की बात क्यों?

बीजेपी के किसी भी नेता का भाषण सुनिए.. उनकी भाषण में हिंदू से ज्यादा आतंकवादी, पाकिस्तान या देशद्रोही फैक्टर होता है. बाकी धर्मांध लोगों के लिए बीच बीच में छोटे मोटे नेता बयान दे देते हैं. जबकि पीएम मोदी इसपर मजाक, मजाक में या सांकेतिक भाषा (मंदिर जाना, तिलक लगाना) में ही सारी बातें कहते हैं.

ठीक वैसे ही जैसे अपने भाषण को प्रभावशाली बनाने के लिए कभी नेता या वक्ता शेरो-शायरी कर दिया करते थे. इस तरह के शेरो शायरी का फायदा यह होता है कि स्पष्ट नहीं कुछ कहते हुए भी अपने इरादे जाहिर हो जाते हैं. यानी एक संकेत दे दिया जाता है जिसे बाकी के लोग फिर फैलाने का काम करते हैं.

सिस्टम के सताए बीजेपी में देख रहे हैं अपना विकास

इसके अलावा बाकी के लोग वह हैं जो अपने जीवन में असंतुष्ट है और यह असंतोष पहले की सरकारें द्वारा बनाई गई नीतियों के फलस्वरूप उतपन्न हुआ है. मसलन- भ्रष्टाचार, जातीय आरक्षण के शिकार सवर्ण, जो सरकारी नौकरी पाने से रह गए. बाकी वे लोग जिन्होंने अपने पड़ोसियों को किसी ना किसी तरह से तरक्की करते देखा और खुद बहुत ज्यादा नहीं कर पाए. इन सबों के दिमाग में यह डाला गया कि पहले की सरकारों ने ही आरक्षण और भ्रष्टाचार के नाम पर अपनी तरक्की कर ली, जबकि कमजोर लोग, पीछे ही रह गए. यानी एक बड़ा वर्ग असंतुष्ट है.

असल में यही असंतुष्ट लोग अपनी तरक्की के नाम पर जाति, देश या विकास का हवाला देते हुए पार्टी के साथ या हवा के साथ हो लेते हैं. फिर चाहे वह समाजवादी पार्टी के साथ जाने वाले लोग हों या फिर बीजेपी.

आजादी के बाद से कैसे बदला राजनीतिक ट्रेंड

देश में 1952 में पहली बार आमचुनाव हुआ, जिसे कि लोकसभा चुनाव भी कहा जाता है. आजादी की लड़ाई के दौरान लोगों ने सीखा था कि अन्याय के खिलाफ ज्ञान ही हथियार हो सकता है. आजादी के बाद देश में भारी असमानता थी. फिर चाहे वह धन का हो या ज्ञान का. यही वजह थी कि तब कई राज्यों में कम्युनिस्ट विचारधारी खूब पनपी. क्योंकि आजादी के बाद देश के असंतुष्ट वर्ग के लिए दुश्मन सामंती लोग हुआ करते थे. जमींदारों के जुल्म की पृष्ठभूमि की वजह से ही मजदूर संगठित हुए और ज्यादा मेहनत करने वालों को ज्यादा पैसा देने की मांग उठी.

ऐसे में नेहरू ने समाजवाद और कम्युनिस्ट विचारों को जोड़कर देश की राजनीति को आगे की दिशा दी. लेकिन फिर एक समय ऐसा आया जब पिछड़े वर्ग के कई नेता राजनीति से जुड़े और देश में समाजवाद की लहर आई. जो मौजूदा सरकार के नीतियों के विरोध में बनी थी. लेकिन यह अस्थायी रही. इसकी बड़ी वजह यह थी कि उन्होंने असंतुष्टों को तो साथ कर लिया लेकिन अपनी राजनीतिक रोडमैप नहीं दिया. इस वजह से पार्टियां टूटने लगी और अलग अलग राज्यों में कई क्षत्रपों का जन्म हुआ. हालांकि यह समाजवाद का सूक्ष्म रूप था. जिसमें पिछड़े तबके के लोगों को मुख्यधारा में लाने की बात तो कही गई लेकिन वह जातीय आधार पर रही.

सामाजिक न्याय या उठाया फायदा?

जातीय आधार पर लोगों में असंतोष इतना ज्यादा था कि क्षेत्रीय पार्टियां ना केवल सत्ता में आई बल्कि कई वर्षों तक राज करती रही. वहीं कांग्रेस पर जैसे जैसे मुस्लिम तुष्टीकरण का इल्जाम पुख्ता होता गया, हिंदू वर्ग के एक बड़े तबके में असंतोष पैदा होने लगा. भारत में हिंदुओं की आबादी एक अरब से ज्यादा है. वहीं मुस्लिमों की आबादी 20 करोड़ के करीब. देश के नाम पर यह आंकड़ा कुल 95 प्रतिशत हो जाता है. जबकि जातीय आधार पर यह प्रतिशत काफी कम हो जाता है.

हिंदू और देशभक्ति का जहरीला कॉकटेल

ऐसे में बीजेपी का इतिहास काफी काम आया. 1992 का बाबरी कांड और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी के कार्यकाल का परमाणु परीक्षण, यह बताने में सार्थक साबित हुआ कि देश की धार्मिक विरासत हो या गौरवपूर्ण इतिहास, बीजेपी ही वापस दिला सकती है. एक बात ध्यान देने लायक यह है कि नरेंद्र मोदी जब पहली बार प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित हुए तब से लेकर चुनाव जीतने तक गुजरात मॉडल का जिक्र हुआ. यानी कि विकास मॉडल, जो सभी असंतुष्ट समुदाय या यूं कहें कि पीड़ितों को एक साथ जोड़ने में कामयाब हुआ. उन्हें लगा कि इसी रास्ते पर उनका संघर्ष रंग लाएगा और बीजेपी ही उसे सामाजिक न्याय दिला सकती है.

वहीं देशभक्ति और धर्म के नाम पर हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग जो इनके साथ है, वह भी असंतुष्ट हैं. फिर चाहे वह कश्मीर में मुस्लिम समुदाय के हाथों प्रताड़ना झेलने वाले कश्मीरी पंडित हों या फिर आतंकी (यानी कि मुसलमान) घटनाओं के शिकार या इस्लामोफोबिया के शिकार हिंदू. इन सब के मन में यही धारणा रही है कि इस देश को मुसलमान एक बार फिर तोड़ देंगे. यानी कि यह लोग अपने देश या घर को बचाने के लिए मुस्लिमों के खिलाफ बीजेपी के साथ जुड़ गए हैं. यह अलग बात है कि लोगों की भावनाएं जो भी हों, राजनीति की एक ही भावना होती है, सत्ता में बने रहना….

कुछ राज्यों तक बीजेपी को रोका नहीं

कुल मिलाकर बीजेपी ने राष्ट्रीय मुद्दों के साथ मणिपुर तक में अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार बना ली है. पहले की बीजेपी ने अपने सफर को कुछ राज्यों तक समेट लिया था. जबकि वर्तमान की बीजेपी ने पूरे देश को एक साथ किया है. इसलिए उन्होंने सभी समुदाय और जातियों में सेंध लगाई है. मौजूदा स्थिति में किसी भी क्षेत्रीय पार्टियों का बीजेपी को केंद्र में सीधे टक्कर देना आसान नहीं होगा.

शहरी क्षेत्रों में बदल रहा है ट्रेंड, यूपी बिहार में क्या होगी दिशा?

ऐसे में दिल्ली, पंजाब, हिमाचल प्रदेश जैसे कुछ राज्य हैं जहां से नई राजनीतिक दिशा तय हो सकती है. अरविंद केजरीवाल ने एक बार फिर से शिक्षा और स्वास्थ्य की राजनीति की वापसी कराकर असंतुष्ट और देश के हितों को साथ लाने की कोशिश की है. देश के शहरी क्षेत्रों में एक बड़ी आबादी है जो बिजली और पानी के बढ़ते बिल की वजह से परेशान है.

क्योंकि इनकी आमदनी कम है और खर्चा ज्यादा. ऐसे में केजरीवाल का मॉडल बीजेपी से आगे की लकीर है. हालांकि इनको असली चुनौती गुजरात, यूपी, बिहार जैसे क्षेत्रों में मिलेगी और उसके बाद ही तय होगा कि बीजेपी के आगे की राजनीतिक विचारधारा क्या होगी?

वहीं यूपी चुनाव में प्रियंका गांधी के कैंपेन का जो मॉडल रहा है वह कागज पर बेहद दुरुस्त नजर आता है. लेकिन कांग्रेस के सामने असल चुनौती नए सिरे से पार्टी गढ़ने की है. तभी उनका कोई मॉडल सफल हो पाएगा..

Last Updated on March 11, 2022 2:20 pm

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1 Comment

  1. राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले हर व्यक्ति को जो सीखने की चाह रखता है… उसे ये लेख पढ़ना चाहिए।

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