Aurangzeb killed Sambhaji: औरंगज़ेब ने संभाजी के साथ क्रूरता की थी? बिल्कुल की होगी. अगर संभाजी को मौक़ा मिलता तो वह भी ऐसी ही क्रूरता करते औरंगज़ेब के साथ. क्रूरता मध्यकाल की वीरता थी.
कल्पना कीजिए एक व्यक्ति दोनों हाथों से तलवार चलाता हुआ लोगों की गर्दन काट रहा है आपके सामने. धरती पर नरमुंड बिखरे हैं. किसी की आंत निकल आई है बाहर. कोई कटा हुआ हाथ पड़ा है. आप वहां हों तो क्या हाल होगा? कांप जाएंगे कई रात नींद नहीं आएगी.
मध्यकाल में यही वीरता थी जिसके क़िस्से गर्व से सुनाए जाते हैं. आप मार दो सामने वाले को वरना सामने वाला आपको मार देगा. सत्ता सर्वोपरि. न्याय तलवार का. कश्मीर में राजतरंगिणी के आगे का क़िस्सा लिखने वाले जोनाराज ने राजा के भाई को सांप की तरह कहा है, आस्तीन का सांप! कुचल डालो वरना डस लेगा.
कश्मीर का इतिहास पढ़ते ऐसी अनेक क्रूरताएं दिखी थीं. महाराजा रणजीत सिंह की मौत के बाद उनकी संतानों में गद्दी के लिए जो संघर्ष चला उसमें एक रानी को उनके बेटे ने सर फोड़कर मार डाला.
हाथी से कुचलवा देना तो मुहावरा बन गया. सोचिए कितना क्रूर रहा होगा किसी ज़िंदा आदमी को हाथी से कुचलवा के मार देना! जीभ खींच लेना भी मुहावरा है, ज़ाहिर है कभी बहुत कॉमन रहा होगा. आंखें निकलवा लेना, हाथ-पांव काट देना, नाक-कान काट देना ..ये सब महान राजाओं के क़िस्सों में पढ़ा है हमने.
छत्रपति शिवाजी महाराज ने बाघनखे से अफ़ज़ल ख़ान की अंतड़ियां निकाल ली थीं. क्रूरता तो थी ही यह. इसे सही ठहराया जाएगा क्योंकि अगर छत्रपति नहीं मारते तो अफ़ज़ल ख़ान उन्हें मार डालता. ज़िंदा रहने और सत्ता बचाये रहने की शर्त थी क्रूरता.
ये भी पढ़ें- New Delhi Railway Station: मुसलमानों से खतरा बताने वाली सरकार में रोज़ाना क्यों मर रहे हिंदू?
रावण का हनुमान की पूंछ में आग लगाना क्रूर था और शूर्पणखा का नाक काटने का निर्णय भी. क्रूरता कहानियों का हिस्सा बन जाती है और विजेता की क्रूरता को सही ठहराने के तर्क उसे सामान्य बना देते हैं.
छत्रपति महाराज ने संभाजी को पन्हारा फ़ोर्ट में क़ैद करके रखा था. वजह अनियंत्रित ग़ुस्सा और स्त्रियों के प्रति उनकी अनुचित दृष्टि. सावरकर ने संभाजी का ज़िक्र करते हुए बेहद असम्मानजनक शब्दों का प्रयोग किया है जिन्हें मैं यहां नहीं दुहरा रहा.
अगर किसी मुस्लिम ने उन्हें क़ैद रखा होता या फिर किसी मुसलमान ने उन्हें यह सब कहा होता तो आज उसे खलनायक बनाया जा रहा होता.
सम्राट अशोक ने भी भाइयों को मरवाया था, औरंगज़ेब ने भी. सत्ता थी इन हत्याओं की वजह. सामंती युग की हर क्रूरता की वजह सत्ता थी, संपत्ति थी.
1857 में विद्रोहियों के दमन का एक तरीक़ा था उन्हें पेड़ पर लटका कर गोली मार देना. दूसरा तरीक़ा था तोप के मुंह से बांधकर उड़ा देना.
इन पर कोई सवाल नहीं उठा रहा क्योंकि मारने वाले अंग्रेज थे और मरने वाले हिंदू-मुसलमान दोनों थे.
ये भी पढ़ें- New Delhi Station: “140 करोड़ हैं तो भीड़ में चप कर मरेंगे, बोगियों में सांसे उखड़ेंगी, कुंभ में रौंदे जाएंगे..”
मारने वाला हिन्दू होता और मरने वाला मुसलमान तो ख़बर बनती? अगर मारने वाले संभाजी होते और मरने वाला औरंगज़ेब तो सवाल नहीं उठता. ख़बर नहीं बनती. फ़िल्म भी नहीं. यह हिंदुत्व का विजय काल है तो विजेता हिन्दू होता तो सवाल नहीं उठता.
सवाई राजा जयसिंह सारी उम्र औरंगज़ेब के साथ रहे, उन्हें मुसलमान नहीं बनाया. शाहू जी महाराज औरंगज़ेब के साथ पले और अंत तक औरंगज़ेब की समाधि पर नंगे पांव जाते रहे. उनकी मां और वह मुसलमान नहीं बनाये गये.
फिर याद दिला दूं – अगर औरंगज़ेब संभाजी के काबू में आ गया होता तो वह भी उसके साथ उतनी ही क्रूरता करते.
क्रूरता ही वीरता थी तब और काफ़ी हद तक अब भी. अब उसे लिंचिंग कहते हैं और एक आदमी को घेरकर बीस लोग मार देते हैं और उन्हें वीर कहा जाता है, माला पहनाई जाती है.
आप मध्यकाल के बदले आज लेना चाहते हैं तो हद से हद स्क्रीन फाड़ पायेंगे. जो हुआ है वह हो चुका है. सिनेमा उसे और क्रूर बना देता है. उसका उद्देश्य न सच दिखाना होता है न मध्यकाल में किसी न्याय का. उसका उद्देश्य एक सच को संदर्भों से काटकर आपके भीतर प्रतिहिंसा पैदा करना होता है.
ये भी पढ़ें- Maha kumbh मेला क्षेत्र में allow नहीं करे जाएं Mobile तो 60% भीड़ ख़त्म?
वह इतिहास नहीं है न सच. वह एक पोलिटिकल टूल है. आप बदला लेने के लिए एक बटन दबाकर देश की सत्ता उन्हें दे दें वे यही चाहते हैं. वे चाहते हैं आज के सवाल आप न पूछें.
आपको सिनेमा हॉल से निकलने के बाद अगले दिन फिर या तो रोज़गार तलाशने जाना है या अपने दफ़्तर. सब्ज़ी ख़रीदने जाना है और दाल के महंगी होते जाने पर परेशान होना है.
लेखक, कवि, इतिहासकार अशोक कुमार पांडेय के एक्स हैंडल से…
डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.
Last Updated on February 25, 2025 9:13 am