लालू यादव ने पत्रकारों और लेखकों की इज्जत करते हुए अपने निजी स्पेस तक की सच्चाई से उनको रूबरू कराया. लेकिन वे जिस षडयंत्र का मंत्र पढ़कर आए थे. उससे टस से मस नहीं हुए. एक नेता जो यह चाहता था कि अंग्रेजी और हिंदी ज़ुबान के बड़े लेखक उनके संघर्षों की किस्सों कहानियों को इस देश के रसूखदार तबके तक भी ले जाए. लेकिन जिनके लिए अपनी जाति से बड़ी कोई चीज नहीं उनसे किसी तरह के परिवर्तन की उम्मीद करना बेमानी है.
अंग्रेजी बोलने और सूट पहनने वालों से ज्यादा कोई जातिवादी नहीं है इस देश में. सूट पहनने और अंग्रेजी बोलने वालों के बारे में मेरी धारणा ऐसी न थी. लेकिन 12 साल के विश्वविद्यालय के अनुभव ने पुरानी धारणा को तोड़ दिया. जंगल राज जैसे शब्द, वेब सीरीज, प्रकाश झा की फिल्में, अंग्रेजी में लिखी हुई किताब ‘The Making of Laloo yadav: The Unmaking of Bihar ‘, अखबार और पत्रिकाओं में, निष्पक्ष राजनीतिक विश्लेषक की हैसियत से लिखने वाले ब्राह्मणवाद के पोषको ने एक विराट CULTURE INDUSTRY बनाई जो Narrative, Perception और Discourse बनाकर बेचती रही.
इसका जमीनी हकीकत से कोई ताल्लुक नहीं था. सबसे कमजोर लोगों की मुक्ति के एहसास को अंग्रेजी अखबारों ने जंगलराज की संज्ञा दी. गुजरात आज भी कई सूचकांकों में बिहार से नीचे है. वहां के आदिवासी और दलित जर्जर हालात में जीवन जीने को अभिशप्त हैं. लेकिन दिन रात स्क्रीन पर चलने वाली सूरत और अहमदाबाद की सड़को और गगनचुंबी इमारतों की तस्वीरों के पीछे से आने वाली आकर्षण से भरी हुई आवाज ने हमारी चेतना को colonies कर लिया.
हम भी मानने लगे कि TV पर चलने वाले गुजरात ही असली गुजरात है. आज से लगातार गुजरात के गांवों और सरकारी अस्पताल और स्कूलों की हालात का निष्पक्ष प्रस्तुतीकरण अगर पांच साल भी हो जाए तो तमाम आसमानी विमर्शों का गुब्बारा फट जायेगा.
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लेकिन लालू यादव को तो बनाया था हजारों सालों से सताए हुए लोगों ने. उनके पास न तो कलम था, ना हार्वर्ड और कोलंबिया की डिग्री, जिसके आधार पर आप झूठ को भी सच की तरह बोल सकते हैं और लुटियंस की जनता आपके एक्सेंट पर लहालोट होकर तालियां बजाती रहती है. उन सताए हुए लोगों ने अपनी मुक्ति के एहसास की दास्तान को कविताओं और किस्सों में संजोकर रखा है.
मुझे भी अंग्रेजी मीडियम स्कूलों में लालू यादव को ललुआ बोलना सिखाया गया था लेकिन गांव गया तो कुछ और सच्चाई देखी. जिसकी थाली में नून और चावल भी पेट भर खाने को नहीं था वह लालू यादव को बड़े एहतराम के साथ याद कर रहा था और अपने जीवनकाल में लालू यादव से एक बार बस मिलकर उन्हें धन्यवाद कहना चाहता था. आज भी हजारों कहानियां और कविताएं सताए हुए जनमानस की अभिव्यक्ति के रूप में बिहार की फिज़ाओं में फैली हैं.
ब्राह्मणवादी ताकतें भी जानती है इस बात को. लेकिन सच्चाई को दर्ज करने की जगह सच्चाई से मुंह मोड़ लेते हैं वो लोग. सच्चाई से मुंह मोड़ने की वजह से सच और न्याय के प्रति कोई आग्रह नहीं रह जाता और फिर इनकी कथनी और करनी का फर्क वक्त के साथ और बड़ा होता चला जाता है. गांधी जी के विराट व्यक्तित्व, कमजोर लोगों का चौतरफा उभार, डॉक्टर अम्बेडकर और डॉक्टर लोहिया की अनोखी सियासत ने इन लोगों को अंतर्विरोधों से भर दिया है.
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मंच से बोलते हुए ये लोग आखिरी व्यक्ति को याद करते हैं और मंच उतरते ही उसके हक की बड़ी होती पौध के जड़ में मट्ठा डाल देते हैं. लालू यादव ने एक लकीर खींच दी है. जैसे लेनिन के विचारों के लिए हम माफी नहीं मांग सकते, जैसे मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन मंडेला के आंदोलनों को हम फक्र के साथ याद करते हैं उसी तरह हम लालू यादव के महान योगदान को भी ऐसे हमलों से बचाकर अगली पीढ़ी की चेतना को सौंप देंगे.
बड़ी लड़ाई है लेकिन क्या कीजिएगा. जिनसे उम्मीद थी कि 8 घंटे की नौकरी के बाद थोड़ा pay back to society करेंगे, वहीं लोग इसी culture industry के प्रोडक्ट्स की भूख के असर में आंखों पर रात दिन जोर देकर धनपशुओं की कंपनियों के शेयर खरीद रहे हैं. Ease of doing business को justice और equality समझता है. सिल्क के कपड़ों के पहनने को quality of life समझता है. Market awareness को critical awareness समझता है. जाति तोड़ने वाले आंदोलन को वह भी जाति बढ़ाने वाला आंदोलन समझता है. अंग्रेजी को केवल भाषा नहीं Authentic knowledge समझता है.
वरिष्ठ पत्रकार Rajneesh K Jha के Facebook पेज से…
Last Updated on March 5, 2025 1:18 pm