कल भगत सिंह (Bhagat Singh) पर एक किताब पढ़ते हुए ही सो गया था. ऐसा कम होता है कि मेरे हाथ में किताब हो और मेरी आंख लग जाए. अक्सर साइड टेबल पर रखकर ही इत्मीनान से लेट पाता हूं. सोने से कुछ देर पहले मैं कल्पना करने लगा था कि भगत की आवाज़ कैसी होगी. 23 साल के लड़के की आवाज़ में वो भारीपन तो नहीं होता जो दस साल बाद आता है मगर पता नहीं क्यों लगता है कि वो पंजाबी लहज़े की हिंदुस्तानी थोड़ी भारी आवाज़ में बोलते होंगे.
फिर कल्पना करने लगा कि केश रखते होंगे तो कैसे दिखते होंगे और कटवाने के बाद कितना बदलाव आया होगा. उनकी करीब चार ही तो फोटो हैं. एक में वो छोटे से हैं. दूसरी कॉलेज की एक ग्रुप फोटो है. तीसरी उनकी पहली गिरफ्तारी के दौरान चारपाई पर बैठे रहने के दौरान चुपके से ली गई थी और चौथी उन्होंने दिल्ली में असेंबली कांड करने के ठीक पहले हैट लगाकर खिंचवाई थी. चौथी वाली का इस्तेमाल कहां कैसे करना है ये उन्हें मालूम था. उनके मित्रों ने वैसा उपयोग किया भी और फिर उनकी फांसी के बाद उस तस्वीर ने जो जादू किया उसे आप चे ग्वेरा की फोटो जैसा ही समझिए.
Bhagat Singh का कोई वीडियो उपलब्ध नहीं है जबकि उस समय तक वीडियो बनने लगे थे. ऐसा भी नहीं कि और फोटो ना हों. कहा जाता है कि पुलिस ने उनकी कई तस्वीरें जेल में ली थीं मगर वो अब भी पाकिस्तान के पास फाइलों में धूल खा रही हैं. भारत की तरफ से बहुत प्रयास नहीं हुए कि वो चीज़ें लाई जाएं, जबकि पाकिस्तान के लिए उनका कतई महत्व नहीं है. कम से कम भगत के प्रति उनका रवैया तो यही दिखाता है.
जिस जगह Bhagat Singh, सुखदेव थापर और शिवराम राजगुरू को फांसी दी गई थी वहां आज शादमान चौक है. उसका नाम ज़िला प्रशासन ने Bhagat Singh के नाम पर रखा तो कट्टरपंथी भड़क उठे. एक क़ाफिर के नाम पर पाकिस्तान में कोई जगह हो ये उन्हें बर्दाश्त नहीं हुआ, ये अलग बात है कि उसी लाहौर में हिंदुओं के नाम पर जाने क्या क्या आज भी बरकरार है.
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भगत से जुड़ी तकरीबन हर याद अब धुंधली पड़ रही है. उनका पुश्तैनी घर एक चौधरी साहब के पास है. एक दो कमरों में भगत और बाकी स्वतंत्रता सेनानियों की तस्वीरें लगा रखी हैं लेकिन बाकी को वही बरत रहे हैं. पाकिस्तान सरकार ने घर संरक्षित रखने में कोई मदद नहीं की तो उनको जैसा समझ आ रहा है प्रबंध करते हैं.
पिछले साल मैंने उनका नंबर जुगाड़ा था. मैसेज में बात भी हुई लेकिन वो शायद बहुत उत्साहित नहीं थे. मैंने भी परेशान करना ठीक नहीं समझा. फिलहाल वो ही हैं जो उस धरोहर को संभाले हैं. ना होने में भी पाकिस्तानी पंजाब और मौका लगने पर कई हिंदुस्तानी उनके घर पहुंच ही जाते हैं. वो भी मेहमानों को घर और भगत का ज़मींदोज़ स्कूल दिखा आते हैं.
वैसे कई लोगों को जानकर परेशानी होगी मगर चौधरी साहब के अलावा पाकिस्तान के कुछ वामपंथी संगठन ही हैं जो भगत की विरासत के लिए लड़ते हैं. अक्सर वही शादमान चौक पर भगत की याद में मोमबत्तियां जला आते हैं या ख़ास दिनों पर नाटक खेलते हैं. भगत का डीएवी कॉलेज, नेशनल कॉलेज, द्वारकादास लाइब्रेरी सब का रूप बदल गया है.
एक ब्रैडलॉ हॉल है. जर्जर हालत है. सरकार उसे गिरा देना चाहती है लेकिन कुछ लोग गिरने नहीं देते. उसी में कभी लाला जी का नेशनल कॉलेज चलता था जहां भगत, सुखदेव, यशपाल वगैरह पढ़ते थे. उसी में नेहरू से लेकर बड़े बड़े नेताओं के भाषण हुए. Bhagat Singh काकोरी शहीदों के फोटो बड़े परदे पर वहीं लोगों को दिखाते थे.
दुर्गा भाभी के पति भगवतीचरण भावुक शब्दों में उनकी कहानियां सुनाते और सब रोते थे. इसी हॉल के बाहर भगत के पिता सरदार किशन सिंह पूरे लाहौर षड्यंत्र केस के दौरान दिनभर बैठे रहते जहां उनसे मिलनेवालों का तांता लगा रहता. आज वो हॉल गिरनेवाला है. सरकार चाहती है कि मॉल बन जाए.
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उस हॉल को बचाने के लिए कुछ सिविल सोसायटी के लोग शासन प्रशासन से संघर्ष कर रहे हैं. मैंने भी फेसबुक पर उनका पेज ज्वॉइन कर रखा है ताकि उसका हर अपडेट मिलता रहे.
बात ये नहीं कि पाकिस्तान सरकार क्या कर रही है, सवाल ये है कि भगत पर कब्ज़ा जतानेवाले हमारे सारे राजनीतिक दलों ने सत्ता में रहते क्या किया? सॉन्डर्स वाले केस के भी चंद असल कागज़ हमारे हाथ तब लगे जब कुछ लोग सरकार के पीछे हाथ धोकर पड़ गए.
पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस ने सौहार्द कायम करने की ग़रज़ से वो भारत को सौंपे भी लेकिन अब भी Bhagat Singh से जुड़ी हज़ारों यादें धूल हो रही हैं. जेल में भगत ने काफी कुछ लिखा था. संभवत: चार किताबें थीं. “आत्मकथा”, “समाजवाद का आदर्श”, “भारत में क्रांतिकारी आंदोलन”, “मृत्यु के द्वार पर”. सब नष्ट हो गईं.
अलबत्ता एक नोटबुक हाथ ज़रूर लगी जिसमें भगत ने अपने हाथों से नोट्स लिखे हैं. उसकी कहानी भी तब पता चली थी जब एक रूसी विद्वान ने 1981 में एक किताब छपवाई. नाम था “लेनिन एंड इंडिया”. इस किताब के एक अध्याय में नोटबुक के बारे में लिखा था. उसके पहले 1968 में इतिहासकार जी देवल ने भी एक पत्रिका में नोटबुक का ज़िक्र किया था.
उन्होंने उसे Bhagat Singh के छोटे भाई कुलबीर सिंह (जो जनसंघ से विधायक रहे) के पास फरीदाबाद वाले घर में देखा था. कहा भी कि इसे छपवाकर लोगों तक ले जाना चाहिए पर उदासीन केवल सरकारें ही थोड़े ही थीं. सोचिए कि Bhagat Singh की शहादत के साठ साल बाद जेल में लिखी उनकी नोटबुक सामने आई, वो भी तब, जब उनके संबंधियों के पास वो सुरक्षित थी, इसके बावजूद!!!
कमाल ये है कि तब भी वो उनके रिश्तेदारों ने छपने को नहीं दी. ये सारी जानकारी “राहुल फाउंडेशन लखनऊ” द्वारा प्रकाशित किताब “Bhagat Singh और उनके साथियों के संपूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़” में लिखी है.
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अब क्या क्या ही लिखूं. Bhagat Singh पर हिंदी में ना कायदे की एक डॉक्यूमेंट्री है, ना फिल्म और ना किताब. अफसोस कि जिसे पढ़ना हो वो भी टुकड़े में इधर उधर से पढ़ेगा. हाल चंद्रशेखर आज़ाद के मामल ये में भी यही है. अपने नायकों को लेकर वाकई कितने भावुक मगर बेशर्मी की हद तक लापरवाह कौम हैं हम.
मेरे सामने एनिमेशन के सहारे हिलते फोटो में मुस्कुराते हुए Bhagat Singh हैं. मस्ती से कह रहे हैं- चल छड्ड ना.. लेकिन उनकी निगाहें मुझे चीर रही हैं. हम अपने पुरखों का सम्मान तक नहीं कर सके और एक वो हैं जो 23 की उम्र में हमारे कल पर न्यौछावर हो गए.
एक निजी रेडियो चैनल से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार नितिन ठाकुर के फेसबुक वॉल से.
Last Updated on March 2, 2025 10:20 pm